सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(९८) सूरसागर। मारौं धरि नरतनु अवताराहो ॥ १५ ॥ छूछी मसक पवन पानी ज्यों तैसोइ जन्म विकारीहो। पाखंड धर्म करतहैं पाँवर नाहिन चलत तुम्हारीहो ॥ १६ ॥ मारग छाँडि कुमारग सौरत बुधिविपरीति विचारीहो । अमृत छाँडि विषय विष अचवत देत अधमपति गारीहो।॥ १७॥ सुर नर नाग तथा पशु पंछी सवको आयसु दीन्हो हो । गोकुल जन्म लेहु मेरे संग जो चाहत सुख कीन्होंहो ॥ १८॥ देवैकोष अकर्ख रोहिणी आपुन अंश जो लीन्होंहो । जेहि माया विरंचि शिव मोझो वोहि वाणि करि चीन्होहो ॥ १९॥अपनेहि गेहं मधुपुरी आवन देवकि प्राणअधाराहो॥ असुरमारि सुरसाध बढ़ावन व्रजजन सुखदाताराहो ॥२०॥हरिके गर्भवास जननीको वदन उजारो लाग्योहो । मानहु शरदचंद्रमा प्रगट्यो सोच तिमिर तनु भाग्योहो ॥ २१॥ तेहिखन कंस आनि भयो ठाटो देखि महातम जाग्योहो। अवकी वार अरी आयोहै आपु अपनपो त्याग्योहो ॥२२॥ दिनदशगए देवकी अपनो वदन विलोकन लागीहो । कंसकाल जियजानि गर्भमें अति आनंद सभागी हो ॥ २३ ॥सुरनर देव वंदना आये सोवत ते उठि जागीहो । अविनाशीको आगम जानी सकल देव अनुरागीहो ॥ २४ ॥ कछुदिन गए गर्भको आगम उर देव की. जनायोहो । कासों कहौं सखी कोउ नाही चाहत गर्भ दुरायोहोः ॥ २५ ॥ बुध रोहिणी अष्टमी संगम वसुदेव निकट बुलायोहो ॥ सकल लोकनायक सुखदायक अजन जन्म धरि आयोहो ॥२६॥ माथे मुकुट सुभग पीतांवर उर सोभित भृगुरेखाहो ॥ शंख चक्र भुज चारि विराजत अति प्रताप शिशुभेपाहो ॥२७॥ जननी निरखि भई तनु व्याकुल यह न चरित कहुँ देखाहो । वैठी सकुच निकट पतियोले दुहुन पुत्र मुख पेषाहो ॥ २८॥ सुनि देव एक आन जन्मकी तोसों कथा चलाऊंहो ॥ तुम माँग्यो मैं दियो नाथ हों तुमसों वालक पाऊंहो ॥ २९ ॥ शिव सनकादि आदि ब्रह्मादिक योग जापहू न आलंहो । भक्तवछल पानाहै मोरो विरदहि कहा. लजाऊहो ॥३०॥ यह कहि माया मोह अरुझायो शिशुबैरोवनलागेहो।अहो वसुदेव जाहु लै गो: कुल तुमहो परमसभागेहो ॥ ३१॥ धनदामिनि धरणामिलि गरजै महाकठिन दुखभारेहो आगे जाउँ यमुन जल वूडों पाछे सिंह दहारेहो ॥३२॥ लै वसुदेव से दह सामुहि तिहलोक उजियारेहो। जानु जंघ कटि ग्रीव नासिका वसुदेव मनहि विचारेहो ॥३३॥ चरणपसारि परसि कालिंदीतरवा नीरते आगेहो ॥ शेशसहसफन ऊपर छायो लै गोकुलको भागेहो ॥ ३४ ॥ पहुँचे जाइ महर मंदिरमें मनहि न संका कीनीहो । देखी परी योगमाया वसुदेव गोद कार लीनीहो ॥ ३५ ॥ तुरत वेग मधुपुरी पहूंचे सकल प्रगट पुर कीनीहो।दिवे गर्भ भईहै कन्या राइ न वात पतीनीहो ॥३६॥ | यह सुनि कंस खङ्गलै धायोतब देवै आधीनीहो।यह कन्या जू वकसुबंधुमोहिं दासीजान करिदीनीहो ॥ ३७॥ कूर कंस अपवंश न समुझे नवे नहीं रिसि कीनीहो । नाजानी होई छल कीन्हे अविगति गति को चीन्हीहो ॥ ३८॥ पटकत शिला गई आकासहि दोउ भुज चरण लगाईहो ॥ गगनगई वोली सुरदेवी कंस मृत्यु नियराईहो ॥ ३९॥ जैसे मीन जाल मो कूदत गनै न आपु लखाइहो । तैसे कंस काल ठूक्योहै व्रजमे यादवराईहो ॥४०॥ जैसे व्यालवेग को ठुकै देग पखीरी ताकैहो. जैसे सिंह आयु मुख निरखै परै कूपमेंदाहो॥४१॥ तैसेहि कंस परमअभिमानी. भूल्यो राज सभाकेहो । गतिकी गति पति की पति तेरी हाथ मीज है ताकेहो ॥४२॥ यह सुनि कंस देवकी आगे रह्यो चरण शिरनाईहो । बहु अपराध करी शिशुमारे लिख्यो न मेट्यो जाईहो ॥४३॥ काके शव जन्म लीनोहै बूझहु मतो बुलाईहो।चार पहर सुख सेज परेनिशिनेक नीद नहिं आईहो॥४४॥