पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (११३) रपे ऐनाकवहुंक खेलत जात घुटुरुवनि उपजावत सुखचैन।।कबहुँक रोवत हँसतहैं वलिगई वोलत | मधुरैवैन।। कबहुँक ठाढे होत टेकिकर चलि नसकत इत गैन ॥ देखत वदन करौं न्योछावार-तार ||. तात मात सुखदैन । सूर बाललीलाके उपर वारौं कोटिक मैन ॥ ९३॥ कान्हरो आँगन खेलत घुटरवन धाए । नीलजलद तनु श्याममुख निरखि जननि दोउ निकट बुलाएबंधुक सुमन अरुण पदपंकज अंकुश प्रमुख चिह्न वसिआए/नूपुर कलरव मनों सु तहँशनि रचे नीठ दै वाहवसाए । कटि किकिनि वरहार ग्रीवदर रुचिर वाहु भूपन पहिराए।उर श्रीवक्ष मनोहर केहरि नखनमै मध्य मणिगण बहु लाए ॥सुभग चिबुक द्विज अधर नासिका श्रवण कपोल मोहें मुठिभाए ॥ भुव सुंदर करुणारस पूरन लोचन मनहु युगलजल जाए।भाल विसाल ललित लटकन मणि बालदशाके चिकुर सुहाए ।। मानो गुरु शनि कुज आगे करि शशिहि मिलन तमके गणभाए ॥ उपमा एक अभूत भई तव जब जननी पटपीत उठाए ॥ नील जलद ऊपर वे निरखत तंजि सुभाउ मनौ तडित छपाए ॥ अंग अंग प्रति मार निकार मिलि छवि समूह लैलै जनु छाए ॥ सूरदास सो क्योंकरि वरणै जो छवि निगम नेति करिगाए ॥ ९४ ॥ धनाश्री ॥ हौं बलि जाउँ छवीले लालकी ॥ धूसरि धूरि घुटुरुवन रेंगनि वोलन वचन रसालकी ॥ कछुक हाथ कछू मुखमाखन चितवनि नैन विसालकी ॥ सूर सुप्रभुके- प्रेम मगन भई दिग न तजति ब्रजवालकी ॥ ९५ ॥कान्हरो सादर सहित विलोकि श्याममुख नंदरूपलिये कनिया सुंदरश्याम सरोज नील तनु अंग अंग सकल सुभग सुखदनिया ॥ अरुण तरनि नखज्योति जगमगति झुनझुन करत पाइँ पैजनिया ॥ कनकरतन मणि जटित रचित कटि किंकिनि कलित पीतपट झनिया॥ पहुँची करनि पदीके उर हरिनख कठुला कंठ मंजु गजमनिया ॥ रुचिरचिवुक द्विज अधर नासिका अतिसुंदर राजत सोंवनिया । कुटिल भृकुटि सुखकी निधि आनन कपोलकी छवि नउ पनिया ॥ भालतिलक मसि विंदु विराजत सोभित शीशलालचौतनिया ॥ मनमोहन तुतरी वोलन मुनि मन हरत सुहँसि मुसकनिया ॥ वाल स्वभाउ विलोकि विलोचन चोरत चितहि चारु चितवनिया ॥निरसति ब्रज युवती सब ठाढी नंदसुवन छवि चंद्र वदनिया। सूरदास प्रभु निरखि मगनभए प्रेमविवस कछु मुधि न अपनिया॥९६॥कान्हरो । ॥ वोलि लिए यशुमति यदुनंदहिपीत झगलियाकी छवि छाजति विजुलता सोहति मनौ कंदहिवाजापति अग्रज अंवाते अरजथान सुत माला गंदहि ॥ मनौ सुरग्रहते सुररिपु कन्या सौते आवति ठुरिसंदहि ॥ आरि करत कर चपल करतुतो नंदनारि आनन छुवै मंदहि । मनो भुजंग और परस लालच फिरि फिरि चाटर सुभग सुचंदहि ॥ गुंगी वातनि यों अनुरागति भंवरगुंजरत कमलमौ वंदहि । सूरदास प्रभु सुतपकिये वडे भाग्य यशुदा अरु नंदहि ॥ ९७॥ रागधनाश्री ॥ कहांलौं वरनौं सुंदरताइखेलत कुँअर कनक आंगनमें नैननिरखि छविछाइ ॥ कुलहि लसत शिर श्याम सुभग अति वहुविधि सुरंग वनाइ ॥ मानो नवधन ऊपर राजत मघवा धनुप चढाइअति सुदेश मृदु हरतचिकुर मनमोहन मुख वगराइ मानो प्रगट कंज पर मंजुल अलि अवली फिरि आइ ॥ नील श्वेत परपीत लालमणि लटकनि भालरु नाइ । शनि गुरु असुर देवगुरुमिलि मनौ भौम सहित समुदाइ । दूधदंत दुति कहिन जाति अति अद्भुत एक उपमाइ॥ किलकत हँसत दुरत प्रगटत मनौ घनमें विजुछटाइ ॥ खंडित वचन देत पूरन सुख अल्प जल्प जलपाइ ॥ घुटुरुन चलत रेणु तनु मंडित सूरदास वलिजाइ ॥ ९८ ॥ नटनारायण ॥ हरिजूकी वालछवि कहौं वरनि ।