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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२

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श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र।


तिनहुँ मध्य तव कर त्रिय जोई। सो निज सकुचलाज सब खोई॥७॥
मोहिं सन करहिं रुचिर संभाषा। होहिं तुरंत बहुरि मृत तासा॥
साह सुनत अस दीन रजाई । महिपी सुनत सकल चलिआई॥८॥
एक एक करि नम्र प्रणामा । चली जात भामिनि निजधामा॥
आई एक सबन ते पाछे । पतिप्रिय रूप ललित गुणआछे॥९॥

दो-निरखत सन्मुख हर्पवश,कहिसि वदन मुसकाय।कहितें कीन आगमनतुव, मोर मर्म कछुपाय।।

चौपाई-देखत कहि ससूर तिहि ओरा । शुभ्रे मोहिं मर्म सब तोरा॥
भामिनि सुनत चरण गहि लीने। देखत सवन प्राण तजि दीने ॥१॥
महिषी आन देखि अस तासा । लागी रुदन करन संभापा ॥
साहु व्यथित मानस विसमायो। धरतधीर पुनि बदन अलायो॥२॥
पन्दहुँ वार वार अब तोहीं। भगवन करहु कथन सब मोहीं॥
को इह रही भवन मम भामा।जहि अस तज्यो वपुप निष्कामा ॥३॥
तव पूर्ववतहि कथा सुहायन । लागे सूरदास मुखगायन ॥
इह मधुरा पुरि वसहि सुहाई। वीर वधू सब लोगन गाई ॥४॥
हाव भाव कल निरत परायन । कला प्रवीन परम कटु गायन ॥
सभा महिंद्र धनक जन जाई । निज प्रभाव गुण लेत रहाई ॥५॥
काहु धनाव्य काल शुभ पायो । पाणिग्रहण निज सुवन रचायो ।
इहि कहँ पढ्यो बोलि सन्माना। लाग्यो होन नृत्य कलगाना ॥६॥
करि निज कला ललित चतुराई। मृर्छित सभा कीन समुदाई ॥
तब कोउ आन देशकर राई । इहि नृत गीत देखि चतुराई ॥७॥
निज पुर गयो लेत हरपाना । पावा तहाँ विविध सन्माना॥
एक दिवस रत नृत्य अगारा । देखि सरुचिर धरणिपतिदारा॥ ८॥
सजि शृंगार आभरण सोहन । ठाढी मनहु मान रति मोहन ॥
चारि ओर परिवारत दासी । सेवइ सुखद रूप गुण रासी ॥९॥
अस प्रभाव दृग देखि सुहावा । तेहि कर हृदय मनोरथ छावा ।।
हमहुँ होव इहि सम कस रानी ।अस विचारि मानस सकुचानी॥१०॥
इन कर भूप पुण्य संसारा । हमहुँ अधम धिग जनम हमारा ॥
पुनि देखिस छित पत पटरानी। देत दान दीनन रति मानी ॥१॥

दो॰-धन भूषण पट भक्तियुत,करत सकल सेवकाइ।अतिथि संत आवत सदन,भोजन देहुँ जिवाइ॥ हमहुँ करव यदि पुण्य अस,कहत गुणत जियमाहिं।तो पावहुँ संशय नहीं,भूप पतनि पद काहिं

चौपाई-अस प्रकार पावन शुभ तासा।ललित दान रुचि हृदय प्रकासा।।
तब तहिं देवयोग कर आई । ज्वररुज उपज प्रवल दुखदाई ॥१॥
पुनि पंचत्यभाव कह सोई ।प्रापत भई व्याधि सब खोई ॥
धर्म दूत रौरव तेहि डारयो । तहाँ भोग निज कृत अगसारयो॥२॥
सुर पुर गवनि बहुरि हरपाती। अपसर नृत्य गीत कलराती॥