पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२०

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दशमस्कन्ध-१० (१२७) टकटोरे । तीक्षणलगी नयन भरि आए रोवत वाहर दोरे ।। फूंकति वदन रोहिणी ठाठी लिये लगाइ अकोरे । सूरश्याम को मधुर कौरदै कीन्हे तात निहोरे।। ९५॥ राग नट ॥ हरिकेवालचरित्र अनूप निरखिरही वजनारी एकटक अंग अंग प्रतिरूप॥विथुरी अलक रहीवदनपर विनही विपिन सुभाइ । देखि खंजन चंदके वश मधुप करत सहाइ॥ सुलछ लोचन चारु नासा परमरुचिर वनाइ युगल खंजन लरत अवनित वीच कियो वनाइ ॥ अरुण अधरनि दशन भाई कहौं उपमा थोरि । नीलपट विच मोतिमानौं धरे चंदन पौरि ॥ सुभगवाल मुकुंदकी छवि वरणिकापै जाइ । भृकुटि पर मसि विंदु सोहै सकै शूर नगाइ ॥ ९६ ॥ कान्हरो ॥ सांझभई घर आवहु प्यारे। दौरत कहां चोट लगिहै कहुँ पुनि खेलोगे होत सकारे ॥ आपुहि जाइ वाह गहि ल्याई खेह रही लपटाई। धूरि झारि तातो जल ल्याई तेल परसि अन्हवाई ॥ सरसवसन तनु पोंछि श्यामको भीतर गई लिवाय । सूरश्याम कछु करौ वियारू पुनि राख्यो पौढाइ ॥ ९७ ॥ विहागरो । कमल नयन कछ करौ वियारी। लुचुई लपसी सद्य जलेबी सोइ जेवहु जो लगै पियारीविरमालपुवा मुतिलाइ सुधर सजूरीसरस सवारी।दूध वरा उत्तम दधिवाटी दालमसूरीकी रुचिन्यारी । आछो दूध ओटि धौरीको मैं ल्याईरोहिणि महतारी । सूरदास वलराम श्याम दोउ जेवैहैं जननि जाहि वलिहारी।।९८॥विहागरो। वलमोहन दोउ करत वियारी । प्रेम सहित दोउ सुतनि जिमावति रोहिणि अरु यशुमति महतारी ॥ दोऊ भैया मिलि खात एकसंग रतनजीटत कंचनकी थारी ॥ आलससों कर कौर उठावत नैननि नीद झमकि रही भारी।दोउमाता निरखत आलससों छवि पर तन मन डारतिवारी वारवार जमुहात मुर प्रभु इह उपमा कवि कहै कहारी॥१९॥फेदागाकीजै पयपान ललारेल्याईहै दूध यशुमति मैया कनक कटोरा भारलीजै यह पीजे अति सुखदीजै कन्हैया आछो मैं औत्यो सुठिनीको अरु मिठाई रुचिकारे अचवत क्योंन नन्हैया ॥बहुत जतन करि करि राख्यो ब्रजराज लडैते तुम कारण वल भैया फूंकि फूंकि.जननी पय प्यावति सुख पावति आनंद उर न समैया। सूरदास प्रभु पय पीवत वलराम श्याम दोऊ जननी लेत वलैया॥ २०० ॥ वल मोहन दोऊ अलसाने कछुक खाइ दूधले अचयो मुखजंभात जननी जियजाने।उठहु लाल कहि मुख पखरायो तुमकोले पौढाऊौतुम सोबहु मैं तुमहि सुवाऊं कछु मधुरेरसु गाऊतुरतजाय पौढ़े दोनो भैयासोवत आई नींदासूरदास यशुमति सुखपावति | पौढ़ेवालगोविंदमाखन वाल गोपालहि भावे। भूखेछिनु नरहत मनमोहन ताहि बदौजो गह- रु लगाव।मानि मथानी दह्यो विलोये जौलगि लाल नउठन नपावाजागतही उठि गरि करत अति नहिं माने जोइंदु मनावै ॥ हौं यह जानति वानि श्यामकी अंखियां मी, वदन चलावै। नंदसुवनकी लागे वलैया यह जूठनि कछु सूरज पावै॥२॥विलावलाभोर भयो मेरे लाडिले जागौ कुवर कन्हाईस खाद्वार ठाढे सवै खेली यदुराई ॥ मोको मुख देखरावहु त्रयताप निहारहु । तुव मुखचंद्रचकोरनैनमधु पानकरावहु।।तव हरि पट मुख दूरिकै भक्तन सुखकारी । हँसतउठे प्रभु सेजते सूरज बलिहारी॥३॥ विलावलाभोरभयो जागौ नंदनंदनासंग सखा गढ़े जगवंदन ॥सुरभी पाहत बच्छपियावापंछी तरुत जि दुहुँदिशधाव।अरुन गगन तमचुरनि पुकारे। शिथिल धनुकरति पति गहि डारे॥निशिनिघटी रवि रथ रुचि साजी। चंद मलिन चकई रति राजी ।। कुमुदिनि सकुची वारिज फूले। गुंजत फिरत अलीगन झुले। दरशन देहु मुदित नर नारी। सुरज प्रभु दिन देव मुरारी॥४॥राग नट । खेलत श्याम अपने रंग। नंदलाल निहारि सोभा निरखि थकित अनंग ॥ चरणकी छवि निरखि डरप्यो । अरुन गगन छपाइ । जानु रंभाकी सवै छवि निदार लई छडाइ॥ युगल जंघ निखंभ रंभा नहिन -