पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१३८) सूरसागर। सकुचि महार पछितात ॥ ८८ ॥ सारंग ।। कन्हैया तू नहिं मोहिं डेरात। पटरस धरे छाँडि कत पर घर चोरी करि करि खात ॥ कति बकति तोसों पचिहारी नेकहु लाज न आई।ब्रज परगन सिर दार महरितू ताकी करत नन्हाईपूत सपूत भयो कुल मेरो अब मैं जानी बात । सूरश्याम अबलों तोहिं वकस्यों तेरी जानी घात ॥ ८९ ॥ गौरी ॥ सुनिरी ग्वारि कहीं एक वात । मेरी सौं तुम याहि मारियो जवहीं पावो घात॥अब मैं याहि जकरि बांधौंगी बहुतै मोहिं खिझाई । साटिन्ह मारि करौं पहुनाई चितवत वदन कन्हाई ॥ अजहूं मानु को सुनु मेरो घर घर तू ननि जाही । सूर श्याम कह्यो कबहुँ न जैहाँ माता मुख तन चाही।। ९० ॥ बिलावला तेरेलाल मेरो माखन खायो। दुपहर दिवस जानि घर सूनो ढूंढि ढंढोरि आपही आयो॥ खोल किंवार सूने मंदिर में दूध दही सब सखन खवायोसीके काढि खाट चढि मोहन कछु खायो कछु लै ढरकायो।दिन प्रति हानि होत गोरसकी यह ढोटा कोने ढंग लायो । सूरदास कहती वजनारी पूत अनोखो जायो ॥९१ ॥ रामकलगामाखन खात पराये घरको । नितप्रति सहस मथानी मथिये मेघ शब्द दधि माठघमरको। कितने अहीर जियतहैं मेरे गृह दधि लै मथि वेचतहैं मही महरको।नव लख धेनु दुहतहैं नितप्रति वडो भाग्यहै नंद महरको।ताके पूत कहावतही जी चोरी करत उघारत फरको।सूरश्याम कितनो तुम खेही दधि माखन मेरे जहां तहां ढरकौ ॥ ९२ ॥ मैया मैं नाही दधि खायो। ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुखलपटायो ॥ देखि तुहीं सीके पर भाजन ऊंचे घर लटकायो।तुहीं निरखि नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायो। मुख दधि पोंछि कहत नँदनंदन दोना पीठ दुरायो। डारि साट मुसुकाइ तबहिं गहि सुतको कंठ लगायो ॥ वालविनोद मोद मन मोह्यो भक्त प्रताप देखायो सूरदास प्रभु यशुमतिके सुख शिव विरंचि वौरायो ॥ ९३ ॥ ॥ यशुमति. तेरो वारो न हो । अतिहि अचगरो । दूध दही माखनलै डारि देत सगरो॥ भोरहि उठि नितप्रति मोसों करतहै झगरो ग्वाल वाल संग सब लिये घेरि हैं बगरोहम तुम, सब पैस एक के को काते अगरौ । लियो दियो सोई कछु डारि देहु झगरो। सूरश्याम तेरो गुननिमें अति नगरौ । चोली अरु हार तोरि कियो झगरो॥९॥ देखो माई या बालककी बात । वन उपवन सरिता सब.मोहे देखत श्यामल गात ॥ मारग चलत अनीत करत हरि हठिकै माखन खातापीतांवर वै शिरते ओढ़त अंचलदै मुसुकात। तेरीसौं कहा कहौं यशोदा उरहन देत लजाताजव हरिआवत तेरे आगे सकुचि तनक बै जातकोनर गुण कहौं श्यामके नेक न काहु डरात । सूरश्याम मुख निरखि यशोदा कहाति कहा इह वात ॥ ॥९५ ॥ राग नट ॥नंद घरनि सुत भलो पढ़ायोबिजकी वीथिन पुरानि घरनि घर बाट घाट सब शोर मचायो । लरिकन मारि भजत काहूके काहूको दधि दूध लुटायो।काहूके घर करत बड़ाई में ज्यों त्यों करि पकरन पायो॥ अवतौ इन्हें जकरि बांधौगी इहि सब तुम्हरो गाउँ भड़ायो। सूरश्याम भुज गहि नंदरानी बहरि कान्ह अपने ढिग आयो॥९६॥ विलावलासुनि सुनिरीत महरि यशोदा तैं सुत बड़ो लड़ायो। काके नहीं अनोखो ढोटा केहि न कठिन करि जायो॥ मैं हूँ अपने औसर पै ते बहुत दिनन में पायो । यहि ढोटा लै ग्वाल भवन में कछु विगरयो कचु खायो।।मैं तो ग्वालि पकरि भुज याकी वदन दही लपटायो।सूरदास ग्वालिनि अति रूठी वरवस कान्ह बँधायो॥१६॥ ॥ ९७ ॥ अथ नवम अध्याय हरि दाँवरि बँधार ॥ राग गौरी ॥ ऐसी रिस में जो धरि पाऊं ॥ कैसे हाल करौं धरि हरिके तुमको प्रगट देखाऊी सटिया लिये हाथ नँदरानी थरथरात रिस गात । मारे । विना आजु जो छाँडो लागै मेरे तात ॥ यहि अंतर ग्वालिनि इक और धरे वाह हरि ल्यावति । -