पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३८

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दशमस्कन्ध-१० नेकु नहिं धरको ॥ वाह गहे ढूंढति फिरै डोरी । बांधौं तोहि सकै को छोरी ॥ बांधि पची डोरी नहि पूरै । वार वार खीझत रिस झूरे। घर घरते जेवरि लैआई। मिसही मिस देखनको धाई ॥ चकित भई देखें ढिग ठाढी । मनौ चितेरे लिखि लिखि काठी ॥ यशुमति जोरि जोरि रजु वधैि। आंगुर दैव जेवार सधिजिव जानी जननी अकुलानी । आपुवधायो सारंगपानी । भक्त हेत दावरी बधाई । सनकादिक सुतकी सुधि थाई । माता हेतु जनाहिं सुखकारी । जानि बधायो श्रीवनवारी । मुख जॅभात त्रिभुवन दिखरायो । चकित कियो तुरतहि विसरायो ॥ वाँधि श्याम वाहर लैआई । गोरस घर घर खात चुराई । उखलसों गहि वांधि कन्हाई । नितहि उरहनो सह्यो न जाई । इक कहि जाति एक फिरि आवै ।रोनि दिना तू मोहि खिझावै ॥ माखन दधि तेरे वर नाही। धाम भरो चोरी कारखाही॥ नवलख धेनु दुहत घर मेरे। केते ग्वाल रहत घर घेरे॥मथत नंद घर सहस मथानीताके सुत चोरीकी वानी।।मोसों कहति आनि जव नारी।बोलिजातु नहिं लाज न मारी।नंद महरकी करैनन्हाई। वृद्ध वैस सुत भयो कन्हाई।।तुम्हरे गुण सब नीके जानोनित वरजौं काहूं नहिं मान।।कोउ छोरैजनि ढीठ कन्हाई वांधेभुज दोउऊखल लाईभवन काजको गइ नँदरानी। आंगन छांडे श्याम विनानी उरहन देन ग्वालि जेआईतिन् यशोदा दियो बहराई।।चली सवै मिलि सोचति मनमें । श्यामहि गहि वांधेह क्षनमें।। हँसत वात इक कही कि नाही । अखल सों वांध्यो सुत वाहीं ॥ कहा कहौं वा छविको माई । वांवी पर अहि करत लराई। कान्ह वदन आतिही कुँभिलान्यो मानौं कमलहि हिम तरसान्यौ ॥ डरते दीरप नैन चपल अति । वदन सुधारस मीन करति गति । यह सुनि और युवति सब आई। यशुमति वांधे कहत कन्हाई। भली बुद्धि तेरे जिय उपजी ॥ ज्यों ज्यों दिनी भईत्यों निपजी ॥छोरहुश्याम करहुमन लाहो । अति निर्दयी भई तू काहो।देखोश्याम ओर नँदरानी । सकुचि रह्यो मुख सारंग पानी ॥ वाहिर बांधि सुतहि वैठरो। मथत दही माखन तोहिं प्यारो ॥ छांडि देहु वहि जाइ मथानी ।सौंह दिवावति छोरहु आनी ॥ हांसी करन सबै तुम आई । अव छोरहुँ नहि कुँवर कन्हाई॥ तुमहीं मिलि रसवाद वढायो । उरहन देदे मूंड पिरायो । सवहिन गोधन सौंह दिवाई । चितैरहे मुख कुँवर कन्हाई ॥ कव तुमको मैं बोलि बुलाई । केहि कारण तुम धाई आई। इह सुनि बहुरि चली मुरझाई। कहा करौं बलिजाउँ कन्हाई ॥ मूरखको कोइ कहा सिखावै । याकी मति कछु कहत न आवै ॥ नारि गई फिरि भवन आतुरी । नंद घरनि अव भई चातुरी।ओछी बुद्धि यशोदाकीनी। याकीजाति अवै हम चीन्हीं। इहै कहत अपने घर आई माने नहीं किती समुझाई ॥ मथत यशोदा दही मथानी । तवहिं कान्ह ऐसी मति ठानी ॥ भक्त वछल हरि अंतर्यामी । सुत कुवेरके ये दोउ नामी ॥ यहि अवतार कह्यो इन तारण । इनको दुख अव करौं निवारण। जो जहि ढंग तिहि ढंग सव लायो। यमलार्जुन पै प्रभु तव आयो॥ वृक्ष वीच उखल लै अटक्यो । आगे निकसि नेक गहि झटक्यो । अरररात दोउ वृक्ष गिरे घर । अति आघात भयो ब्रज ऊपर ॥ भए चकृत व्रजके सब वासी । यहि अंतर दोउकुऔर प्रकासी ॥ शंख चक्र कर शारंगधारी। भक्त हेतु प्रगटे बनवारी ॥ देखि दरश मन हरप बढायो । तुमहि विना प्रभ कौन सहायो॥ धनि व्रज कृष्ण जहां वपुधारी। धनि यशुमति ब्रह्महि अवतारी ।। धन्य नंद धनि धनि गोपाला । धन्य धन्य गोकुलकी वाला। धन्य गाइ धनि दुम वन चारन । धनि यमुना हरि करत विहारन ॥ धन्य उरहनो प्रातहि ल्याई। धनि माखन चोरत यदुराई ।। धन्य सुजन उखल गढि ल्याये । धन्य दाम भुज कृष्ण बँधाये । गदगद कंठवचन मुख भारी । शरण राखिलेहु गर्व - D