पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३७

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। । (१४४) तरु गोविंद हमाह हेत धनि भुना वधाए ॥ ४० ॥ सोरठ ॥ धन्य धन्य ऋखि शाप हमारे । आदि । अनादि निगम नहिं जानत ते हार प्रकट देह ब्रज धारे॥ धन्य नंद धनि मातु यशोदा धनि आंगन में खेलन पारे । धन्य श्याम धनि दाम वधाए पनि ऊखल पनि माखन प्यारे।। दीनबंधु करुणानिधि : हहु प्रभु राखिलेहु हम शरण तिहारे। सुरश्यामके चरण शीश धरि स्तुति कार निजधाम सिधारे। ॥४१॥बिलावलायह जिय जानि गोपाल वधायोशाप दग्धद्वै सुत कुवेरके आनि भये तरु युगल सुहाय। व्याज रुदन लोचन जल ढारत उखल दाम सहित चलि आये। विटप भंजि यमलार्जुन तारे करि स्तुति गोविंद रिझाये। तुम विनु कौन दीन खलु तारे निर्गुण सगुण रूप धरि आये। मुरदास श्याम गुण गावत हर्षवंत निज पुरी सिधाये ॥ ४२ ॥ रामकली | तरु दोउ धरणि परे भहराइ । जर सहित अरराइकै आघात शब्द सुनाइ ॥ भए चकृत लोग सब वजके रहे सकुचि डराइ । कोज रहे। अकाश देखत कोऊ रहे शिरनाइ॥ परिकलौं जकिरहे जहां तहां देह गति विसराइ । निरखि यशुमति अजिर देखे वधे नाहि कन्हाइ ॥वृक्ष दाउ महि परे देखे महरि कीन्ह पुकार। अवहिं आंगन छोड़िआई। थप्यो तरुके डार।।मैं अभागिनि वांधि राखे नंद प्राणअधार। शोर सुनिनँद दौरि आये विकल गोपी ग्वार ॥ देखि तरु सब अति डराने हैं बड़े विस्तारागिरे कैसे बड़ो अचरज नेक नहीं बयार दुई तल विच श्याम बैठेरहेऊखल लागि भुजाछोरि उठायलीने महरिके हैं बड़े भागिनिरखि युभती अंग हरिके चोट जनि कहुँलागि । कबहुँ बांधति कबहुँ मारति महरि बड़ी अभागि ॥ नयन जल भरि टारि यशुमति सुतहि कंठ लगाइ । जरहु रिस जिन तुमहिं बांध्यो लागै मोहिं वलाइ ।। नंद मोहि । कहा कहेंगे देखि तरु दोर आइ । मै मरौं तुम कुशल रही दोऊ श्याम हलधर भाइ ॥ आइ घर जो नंद देखे तरु गिरे दोउ भारि । बांधि राखति सुतहि मेरे देत महरिहि गारि ॥.तात कहि तव । श्याम दौरे महर लियो अंकवारी । कैसे उबरे कृष्ण तरुते सुरलै बलिहारी ॥ १३ ॥ रागनट ॥ मेरे मोहन हों तुमपर वारी । कंठ लगाइ लिये मुख चूमत सुंदर झ्याम विहारी ॥ काहेको दाम उसलसों बांध्यो है कैसी महतारी । अतिहि उतंग क्यारिन लागत क्यों टूटे दोऊ तरु भारी॥ वारंवार विचारि यशोदा यह लीला अवतारी। सूरदास स्वामीकी महिमा कापर जात विचारी॥ ॥४४॥ सारंग ॥ अव घर काहूके जिनि जाहु । तुम्हरे आजु कमी काहेकी कत तुम अनतहि । खाहु ॥ वरै जेवरी जिन तुम बांधे वरै हाथ महराई ॥ नंद मोहिं अतिही त्रासतहैं वांधे कुँवर कन्हाई ॥ रोग जार अपने हलधरकी छोरतहै तव श्याम । मुरदास प्रभुखात फिरो जिनि माखन दधि तुवधाम ॥ ४५ ॥जयुवती श्यामहि उर लावति । बारम्बार निरखि कोमल तनु कर जोरति । विधिको जुमनावति ।। कैसे बचे अगम तरुके तर मुख चुंवति यह कहि पछितावति । उरहनोले : आवति जहि कारण सो सुख फल पूरण करि पावति ।। सुनहु महरि इनको तुम वांधति भुज गहि वंधन चिह्न दिखावति । सूरदास प्रभु अति रति नागर गोपी हरपि हृदय लपटावति ॥ १६॥ मय यमलार्जुनउद्धारन दूसरी टीला ॥ राग बिलावल ॥ ग्वालि उरहनो भोरहि ल्याई । पशुमति कहां गयो तेरो कन्हाई माखन माथि भरि धरी कमोरी। अवहीं मोहन लै गयो चोरी। भलो कर्म ते ।। सुतहि पढ़ायो । वारेहाते सूंड चढायो। यह सुनतहि यशुमति रिस मानी। कहां गशे कहि सारंग । पानी।। खेलतते औचक हरि आये । जननी बांह पकार बैठाये ॥ मुख देखत यशुमति पहिचानो। माखन वदन कहा लपटानों । फिरि देखे द्वै तौ ग्वालिनि पाछे । माता मुख चितवत नहि आछ । चोरीके सब भाव बताये । माता सँटिया द्वैकलगाये ॥ माखन खान जात परपरको । बांधत तोहि