पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४०

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दशमस्कन्ध-१० . (१४७) महतारी ॥ रोहिणि चितै रही यशुमति तन शिर धुनि धुनि पछितानी । परसहु वेगि वेर कत लावत भूखे सारंगपानी ॥ बहु व्यंजन बहु भांति रसोई पटरसके परकार । सूरश्याम हलधर दोउ भैया और सखा सब ग्वार ॥ ५३॥ सारंग ॥ नंदभवनमें कान्ह अरोगे । यशोदा ल्याई पटरस भौगै॥ आसनदै चौकी आगे धार । यमुना जल राख्यो झारी भीर ॥ कनक थारमें हाथ धुवाए। सत्रह तहँ भोजन आए ॥ लैलै धरति सबनके आगे। मातु परोसे जो हरि मांगे ॥ खीर खांड घृत लाव जलाडू । ऐसे होइ न अमृत खांडू ।। और लेहु कछु सुत ब्रजराजा । लुचई लपसी घेवर खाजा ॥ पेठा पाक जलेबी पेरा । गोंद पाग तिनगरी गिदारा॥ गोझा इलाइची पाग अमिरती सोरोसा जो लै बजपती ॥ छोलि धरे खरबूजा केरा । शीतल वासु करत अति घेरा ॥ खारिक ! दाख अरु गरी चिरारी । पीड बदाम लेत बनवारी ॥ वेसन पुरी सुखपुरी लीजै । आछौ दूध कमल सुख पीजै ॥ मैया मोहिं और किन प्यावै । धौरी को पय मोको भाव । वेला भरि हलधर को दीनो । पीवत पय वल स्तुति कीनो ॥ ग्वाल सखा सवही पै अँचयो। नीके ओटि यशोदा रचयो । दोना मेलि धरै है खजुवा । हौंस होइ तौ ल्याऊं पूवा । मीठे अति कोमल, नीके । ताते तुरत बमोरे वीके।फिनी सेव अँदरसे प्यारे । ले आऊँ जेंवहु मेरे वारे ॥ हलधर कही ल्याउरी मैया । मोके दे नहिं लेत कन्हैया ॥ यशुमति हरप भरी लै परसति । जेवतहै अपनी रुचिसों अति कान्ह मांगि शीतल जललीयो । भोजन वीच नीरलै पीयोभातु पसाइरोहिणील्याई।घृत सुगंध सुंदरदै ताई ॥ नीलावति चावर दिवि दुर्लभ । भात पऐस्यो माता सुर्लभ ॥ मग मसूर उरद चना दारी । कनक वरण धरि फटक पछारी ॥ रोटी वाटी पोरी झोरी। एक कोरी एक घीव चभोरी ।। गायो घृत भरि धरी कचौरी । कछु खायो कछु फेटो छोरी ॥ मीठे तेल चनाकी भाजी एक मकूनी दै मोहिं साजी।।मीठे चरपरे उज्ज्वल कौराहौस होइ तो ल्याऊं औरा।सुगौरापकोरा पनोए पतोरा । एक कोरे भीजे गुर वोरा ॥ पापर वरी फुलारी मिथौरी । कूर वरी कचरी पिठोरी । बहुत मिरिचि दे किये निमोना । वेसनके दश वीसक दोना ॥ वनकोरा पि डि साचीचीडी। खीप पिंडारू कोमल भीडी। चौलाई लाल्हा अरु पोई । मध्य मेलि निवुआनि निचोई ।। रुचितल जान लोनिका फांगी। कढी कृपालु दूसरे मांगी ॥ सरसों मेथी सोवा पालक वथुवारीधि लियोजु उतालक । हींग हाद मृच छौंके तेले । अदरख और ऑवर मेले ॥ सालन सकल कपूर सुवासित । स्वाद लेत सुंदर हरि आसित ॥ आंव आदिदे सबै संघाने । सव चाखे गोवर्द्धधनराने ॥ कान्ह कहै हौं मातु अयानो । अव मोको शीतल जल आनो ॥ अचवन ले तव धोये कर मुख । शेष न वरने भोजनको सुखा।उज्ज्वल. पान कपूर कस्तूरी आरोगत मुसकी छवि रूरी ॥ चंदन अंग सखनके चरच्यो। यशुमतिकोमुखका नहि परच्यो।मांगि जूंठ सूरजलै लीनों। वांटि प्रसाद सवनको दोनों ॥ जन्म जन्म वाट्यो जूठनिकौ । चेरो नंद महरके घरको ॥५॥कान्हरो। मोहि कहति युवती सब चोराखेलत रहौं कतहुं मैं वाहिर चितै रहति सब मरेविारे॥ योलि लेति भीतर पर अपने मुख चूमति भरिलेति अकोर । माखन हेरि देति अपने कर कछु कहि विधिसों करति निहोर॥ जहां मोहिं देखति तहाँ टेरति मैं नहिं जात दोहाई तोर। सूरश्याम हँसि कंठ लगायो वैतरुणी कहां पालक मोर ॥ ५५ ॥ केदारो॥ यशुमति कहति कान्हसों मेरे अपने ही आंगन तुम खेलौ । बोलि लेहु सव सखा संगके मेरो करो कबहुं जानिपेलौ ।। ब्रजवनिता सव चोर कहति तोहिं लाजन सकुच जातु मन मरो। आज मोहि बलराम कहत है रूठेहि नाम लेतहै