पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५०

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दशमस्कन्ध-१० (१५७ : दीपक बहुत प्रकाश तरनिसम क्यों कहवावै।। मैं ब्रह्मा इलोकको ज्यों गूलरि विचजीव । प्रभु तुमरे इक रोम प्रति कोटि ब्रह्म अरुसीव ॥ १४ ॥ मिथ्या यह संसार और मिथ्या यह माया ॥ मिथ्या है इहदेह कही क्यों हरि विसराया । तुम जाने विन जीव सव उत्पति प्रलय समाहि ॥ शरण मोहिं प्रभु राखिये चरण कमलकी छाहि ॥ १५॥ करहु मोहिं ब्रजरेणु देहु वृंदावन वासा । मांगौं यहै प्रसाद और नहिं मेरे आशा ॥ जोई भावै सो करहु तुम लता सलिल द्रुम ग्रेहु । ग्वाल गाइ को भृतु करौ मनौ सत्य व्रत एह ॥ जो दरशन नर नाग अमर सुरपति हूँ न पायो। खोजत युग गए वीति अंत मोहूं न दिखायो । यह व्रज पारस नित्यहै मैं अब समुझो आइ । वृंदावन रजकै रही मोहिं नहि लोक सुहाइ ॥ १७॥ माँगत वार वार शेप ग्वालनिको पाऊं। आप लियो कछु जानि भक्ष कार उदर जियाऊं ॥ अव मेरे निज ध्यान यह रहिही जूठनि खाइ । और विधाता कीजिये मैं नहिं छाँडौ पाइ ॥ १८॥ तव प्रभु बोले आपु वचन मेरो अब मानौ। और काहि विधि करों तुमहिते कौन सयानो ॥ तुम ज्ञाताही कर्म धर्मके तुमते सब संसार । मेरी माया अति अगम कोऊ न पावै पार ॥ १९॥ श्रीमुख वाणी कहत विलंब अब नेक न लावहु । ब्रज परिकर्मा करहु देहको पाप नशावहु ॥ तुरत जाहु कही लोकको यहि विधि करि मनुहार । ब्रह्मा कार स्तुति चले हरि दीनो उरहार ॥२०॥ धनि वछरा धनि बालक जिनिहींने दरशनपायो। डर मेरो गयो धन्य कृष्ण माला पहिरायो॥ धनि यशुमति जिन वश किए अविनाशी अवतारी। धनि गोपी जिनके सदन माखन खात मुरारी ॥२१॥ धनि गोपी धनि ग्वाल धन्य ये बजके वासी। धन्य यशोदानंद भक्ति वश कीन्हें अविनाशी ॥ धनि गोसुत धनि गाइये कृष्ण चराये आपु । धनि कालिंद्री मधुपुरी जादरशन नाशे पापु ॥२२॥ मथुरा आदि अनादि देह धरि आपन आए। धनि देव वसुदेव पुत्र तुम मांगे पाए ॥ चारि वदन में कहा कहौं सहसानन नहिं जान । गाइचरावत ग्वाल सँग करत नंदकी आन ॥२३॥ योगी जन अवराधि फिरत जिहिं ध्यान लगाए । ते ब्रजवा सिन संग फिरत अति प्रेम वढाए ॥ वृंदावन व्रजको महतु कापै वरण्यो जाइ । चतुरानन पग परशिके लोक गयो सुख पाइ ॥२४॥ हरि लीना अवतार कहत शारद नहिंपावै । सतगुरकृपा प्रसाद कछुक ताते कहि आवै । सूरदास कैसे कहै महापतित अवतार । शेप सहस मुख जपतहै सोऊ न पावै पार॥२६॥सारंगाकह्यो गोपाल चरतहैं गोसुत हम सब वैठि कलेऊ कीजै शीतल छांह वृक्षकी सुंदर निर्मल यमुनाको जल पीन।भोजन करत सखा इक बोल्या बछरू कतहूं दुरिगये यदुपति कह्यो घेरि हौं आनौं तुम जेवहु निश्चित भए॥ चतुरानन बछरालै गोए फिरि माधौ आए पंहि ठाउंचालक वच्छ हरे लोकेश्वर वार चार टेरत लें नाऊ॥ जान्यों छल ब्रह्मा मन मोहन गोपी गाइ बहुत दुख पैहातजिहैं प्राण सबै मिलि सुतको निश्चय गृह जो आज नजे हैं।वाही भौति वरन वपु वैसहि शिशु सव रचे नंदसुत आनाआगे वच्छ पाछे व्रज वालक करत चले मधुरेसुर गानापूरव प्रीति अधिक ताहूते करति जवनिता अरु धेनु । सूरज प्रभु अच्युत व्रज मंगल घरही घर लागे सुखदेनु ॥२६॥ कान्हरो | आज वने वनते ब्रज आवत । नानारंग सुमनकी माला नंद नंदन उर पर छवि पावत । संग गोप गोधन संग लीने नाना गति कौतुक उपजावत । कोउ गावत कोउ नृत्य करत कोउ उघटत कोउ ताल बजावतारांभत गाइ बच्छ हित सुधि करि प्रेमउँमगि थन दूध चुवावतायशुमति बोली उठि हरपित द्वै कान्हों धेनु चराये आवताइतनी कहत आइगये मोहन जननी दौरि हिये ले लावत । सूरश्यामके कृत यशुमतिसों ग्वाल बाल कहि प्रगट सुनावत ॥२७॥ -