(१५६) सूरसागर। मंद गति धावत ॥ नटवर रूप अनूप छबीलो सवहीके मनभावत ॥ गुंजा उर वनमाल मुकुट शिर वेणु रसाल बजावत । कोटि किरण माणि मुख परकाशत उडपति कोटि लजावताचंदन खौरिकाछनी की छवि सबके मनाहि चुरावत । सूरझ्याम नागर नारिनको वासर विरह वसावत ॥राग केदारगासोभा कहत कहै नहिं आवै। अचवत आति आदर लोचन पुट मन न रूपको पावै । सजल मेघ घनश्याम सुभगवपुतडित वसन उरमालासिखीसिखिर तनु धातु विराजति सुमन सुगंध प्रवाल।किछुक कुटि लको विपिन सघन शिर गोरज मंडित केश ॥ सोभित मनौ अंबुज परागरस राजत अली सुदेस॥ कुंडल किरिन कपोल कुटिल छवि नैन कमल दलमीन प्रतिप्रति अंग अंग कोटिकछवि सुनुसखी परम प्रवीन ॥अधरमधुर मुमुकानि मनोहर कोटि मदन मनहीन । सूरदास जहां दृष्टि परत होत तही लवलीन।।१६॥बहुरि वालविभत्स हरन ॥धनाश्री ॥ ब्रजकी लीला देखि ज्ञानु विधिको भयो भारी। त्रिभुवन नाइक आनि भयो गोकुल अवतारी। खेलत ग्वालन संग रंग आनंद मुरारी । सोभित संग ब्रजवाल लाल गोवर्धन धारी ॥घर घरते छाकै चलीं मान सरोवर तीर । नारायण भोजनकरें बाल क संग अहीर ॥ १॥व्यंजन सकल मँगाइ सखनिके आगे राखे ।। खाटे मीठे स्वाद सवे रसलैले चाखे । रुचि सोंजेवत ग्वाल सब लैले आपुन खात ॥ भोजनको सब खादलैं कहत परस्पर वात।। ॥२॥ देखत गणगंधर्व सकल सुरपुरके वासी । आपुसमें वै कहत हँसत एई अविनासी ॥ देखि सबै अचरजु भए कहौ ब्रह्मसों जाइ । जाको अविनाशी कहत सो ग्वालनसँग खाइ ॥ ३ ॥इह मुनि ब्रह्मा चल्यो तुरत वृंदावन आयो। देखि सरोवर सलिल कमल विहि मध्य सुहायो ॥ परम सुभग यमुना वहै तहां वहै त्रिविध समीर ॥ पुहुपलता द्रुम देखिकै चकृत भयो मतिधीर॥॥अतिरमणीक कदंवछाह रुचि परम सुहाई । राजत मोहन मध्य अवलि बालक छविपाई ॥प्रेम मगन परसपर भोजन करत गुपाल । ल्यावहु गोसुत घेरिकै प्रभु पठएद्वै ग्वाल॥५॥ वन उपवन सब ढूंढि सखा हरिपै फिरि आए। वछराभए अदृष्ट कहूं खोजतनहिपाए सबै सखाबैठे रहो मैं देखौं धौजाइ । वच्छ हरन लिय जानि प्रभु आपुगए वहराए॥६॥जव गोविंद गए दूरि बालकन हरयो विधातालेहैं तुरत मँगाइ आपु हैं जगत्राता।ब्रह्मलोक ब्रह्मा गयो बालक वच्छा संगाप्रभुकी लीला गम नहीं कियो गर्व अति अंगातव चिंतामणि चितै चित्तइक बुद्धि विचारी। बालक वच्छ बनाइ रचे वेही उनिहारी॥ करत कुलाहल सब गए ब्रज पर अपने धाइ।अति आदर करि करि लिये अपनी अपनी माइ॥८॥ ब्रह्मा कियो विचार जाय व्रज गोकुल देख्यो । करिहैं सोकु संताप जाइ पितु मातहि देखोआए तहां विधना चले घर घर देखौं आइ। संध्या समै होत कौतूहल जहां तहां दुहिये गाइ ॥९॥ यह गोकुल कीधौं और किधौं होही भ्रम मूल्यो । यह अविनाशी होइ ज्ञान मेरे भ्रम झूल्यो । अंतर्यामी जानि धौं हरौ बच्छ लै आइ।जगत पितामै संभ्रम्यो गएलोक फिरिधाय॥१०॥ देख्यो जाइ जगाइवाल गोसुत जहां राखे । विधि मन चकृतभये बहुरि ब्रजको अभिलाखे ॥ छिन भूतल छिन लोकमे छिन आवे छिन जाइ । ऐसेहि करत वरषदिन बीतो थकित भये विधि पाइ॥ ११ ॥ तब हरि प्रगव्यो जानि ज्ञान चितमें जब आयो। धृगधृग मेरी बुद्धि कृष्णसों वैर बढ़ायो । लै गोसुत गोपाल शिशु सरनगयो है साधु। चारिहु मुख स्तुति करत प्रभु क्षमौ मोहि अपराधु ॥१२॥ अन जानत यह करी मैं तुमहीसों बरि आई। येमेरे अपराध क्षमहु त्रिभुवनके राईज्यिों बालक अपराध शत जननी लेति संभारी शरन । गए राखत सदा अवगुण सकल विसारी ॥ १३॥ जोरे उदित खद्योत ताहि क्यों तिमिर नशाव।।
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४९
दिखावट