पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५४

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दशमस्कन्ध-6 गनती करन जैहैं मोहिं लै नदराइ । बोलि वचन प्रमाण कीने दुहुँन आतुरताइ ॥ कनक वदन सुटार सुंदरि सकुचि मुख मुसुकाइ श्याम प्यारी नैन राचे अति विशाल चलाइगुप्तप्रति जुप्रगट कीन्यो हृदय दुहुन छिपाइ । सूर प्रभुकेवचन सुनि सुनि रही कुँवरि लजाइ ॥१०॥ सारंग॥ गई वृप भानुसुता अपने घर संग सखी सों कहति चली यह को जैहै खेलन इनके दर ॥वड़ी बेर भइ यमुना आए खीझति है मैया। वचन कहति मुख हृदय प्रेम दुख मनहरि लियो कन्हैया ॥ माता कही कहांहुती प्यारी कहां अवार लगाई। सूरदास तब कहात राधिका खरिक देखि में आई ॥५१॥ ॥रामकली ॥ नागरि मन गई अरुझाइ। अति विरह तनु भई व्याकुल घर न नेक सुहाइ ॥ श्याम सुंदर मदनमोहन मोहनी सी लाइ । मात पितुको त्रास मानति मन विना भई वाइ ॥ जननिसों दोहनी मांगति वेगि देरी माइ । सूर प्रभुको खरिक मिलि हौं गए मोहिं बोलाइ ॥१२॥ धनाश्री॥ मोहिं दोहनी दैरीमैया । खारक माहिं अवहीं कै आई अहिर दुहुत अपनी सब गैया । ग्वाल दुहत तब गाइ हमारी जब अपनी दुहिलेत । परिक मोहि लगिहै खरिकामें तू आवै जनि हेत ॥ शोचति चली कुँवार घरहीते खरिकागइ समुहाइ। कव देखौं वह मोहन मूरति जिन मन लियो चुराइ ॥ देखो जाइ तहां हरि नाही चकृत भई सुकुमारि । कबहूं इत कबहूँ उत डोलत लागीप्रति खुम्हारि॥ नंद लिए आवत हार देखे तव पायो विश्राम। सूरदास प्रभु अंतर्यामी कीन्ह्यो पूरण काम।।दशानंद गये खरिकै हरि लीन्हे देखी तहां राधिका गढ़ी श्याम बुलाइ लई तहँ चीन्हें ।। महर कझो खेलहु तुम दोऊ दूरि कहूं जनि जैहो । गनती करत ग्वाल गैयन की मुहि नियरे तुम रहियो।सुनु बेटी वृपभानु | महरकी कान्हहिलिये खिलाइ । सूरश्यामको देखे रहिही मारे जनि कोउ गाइ ॥ ६ ॥ राग नट ॥ नंद ववाकी वात सुनौ हरि। मोहिं छांडिक कबहुँ जाहुगे ल्याऊंगीतुमको धरि ॥ भली. भई तुम्हें सौंपिगये म्वहिं जान न देहाँ तुमको । वाहँ तुम्हारी नेकुन छडिहौं महरिखीझिहै हमको मेरीवाहँ छाँडिदे राधा करत उपर फट पाते। सूरश्याम नागर नागरिसों करतप्रेमकी पाते॥॥ नट ॥ नीवी ललित गही यादौराई । जवहिं सरोज धरो श्रीफलपर तव यशुमति गइ आई ॥ तत्क्ष णरुदन करत मनमोहन मनमें बुधि उपजाई। देखो ढीठ देति नहिं माताराखो गेंद चुराई।काहेको झकरोरत नोखे चलहु न देउ बताई। देखि विनोद वाल सुतको तब महार चली मुसिकाई। सूरदा सके प्रभुकी लीला को जाने इहि भाई ॥ रागधनाश्री । वातनमें लइ राधा लाइ । चलहु जैये विपि न बृंदा कहत श्याम बुझाइ ॥ जब जहां तन भेष धारौं तहां तुम हित जाइ । ने कहू नहिं करौं अंतर निगम भेद न पाइ ॥ तुव परशि तन ताप मेटौं काम इंद्र वहाइ । चतुर नागरि हँसि रही सुनि चंद्र वदन नवाइ ॥ मदनमोहन भाव जान्यो गगन मेघ छिपाइ ।श्याम श्यामा गुप्त लीला सूर क्यों कहै गाइ ॥५६॥ अथ मुख विलास ॥ रागगोडमलार गगन गरनि घहराइ जुरी घटा सेत कारी।पौन झकझोर चपला चमकि चहूं ओर सुवन तन चितै नंद डरत भारी ॥ कह्यो वृषभानुको कुवरिसों बोलिकै राधिका कान्ह घर लियेजारी।दोऊ घर जाहु संग नभ भयो श्याम रंग कुँवर गह्यो वृपभान वारी ॥ गये वन घन ओर नवल नँदनंदकिशोर नवल राधा नए कुंज भारी अंग पुलकित भए मदन तिनतन गए सूरप्रभु श्याम श्यामाविहारी॥५७॥ कामोद ॥ नयो नेहु नयो गेहु नयो रस नवल कुँवरि वृपभानु किशोरी । नयो पीतांवर नई चूनरी नई नई बूंदनि भीजति गोरी ॥ नए कैन अति पुंज नए द्रम सुभग यमुन जल पवन हिलोरी।सूरदास प्रभु नवलरस विलसत नवल राधिका यौवन भोरी ॥५८ ॥ कान्हरो ॥ नवल गुपाल नवेली राधा नये प्रेमरस पागे। नव तरु वन विहार