पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२६३

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(१७०) सूरसागर। कालीदहके फूल मंगाए पत्र लिखाइ ताहि कर दीन्हो ॥ यह कहियो ब्रज जाइ नंदसों कंसराज अतिकाज मँगाए। तुरत पठाइ दियेही बनिहै भली भांति कहि कहि समुझाए । यह अंतर्यामी जानी जिय आपु रहे बन ग्वाल पठाए । सूरश्याम ब्रजजन सुखदायक कंसकाल जिय हरप बढाए ॥२८॥रामकली ॥ खेलन चले नंदकुमार। दूत आवत जानि ब्रजमें आपु दीन्ह्योटार ॥ नंद यमुना न्हाइ आए महरि ठाढ़ी द्वार । नृपति दूत पठाइ दीन्यो चल्यो ब्रज अहंकार ॥ महर पैठत सदन भीतर छींक वाईधार । सूर नंद कहत महरिसों आज कहा विचार॥२९॥राग सूहो।यह सुनि कंस मुदितमन कीन्हों । दूतहि प्रगट कही यह वाणी पत्र लिखाइ नंदको दीन्हों ॥ कालीदहके कमल मँगावहु तुरत देखि यह पाती। जैसे काल्हि कमल ह्यां पहुंचे तू कहियो यहि भांती ॥ यह सुनि दूत तुरतही धायो तब पहुँच्यो ब्रजजाइ । सूर नंद कर पाती दीन्हीं दूतकह्यो समुझाइ ॥ ३० ॥ मूहो ॥ पाती वाचत नंद डेराने । कालीदहके फूल मंगाए सुनी सवनि व्रजलोग घरान।।जो मोको नहिं फूल पठावहु तौ बज करौं उजारी।महर गोप उपनंद न राखों सवहिन डारों मारी।पुहुप देहुतौबनै तुम्हारी नातरुगए बिलाइ।सूरश्याम बलमोहन तेरे माँगों उनहिं धराइ॥३१॥ ॥विलावलानंदसुनत मुरझाइ गए।पाती वांची सुनी दूत मुख यह वाणी सुनि चकित भए।वल मोहन खटकत वाके मन आजु कही यह वात । कालीदहके फूल कहौंधों को आने पछिताताऔर गोप सब नंद बुलाए कहत सुनौ यह बात । सुनहुँ सूर नृप ढंग यह आयो वल मोहन पर घात ॥३२॥ तश्री ॥ आपु चढे बजऊपर काली । कहां निकसि जैए को राख नंद कहत वेहाली ॥ मोहिं नहीं जियको डर नेकहु दोउ सुतको डरपाऊँ । गाउँ तजौं कहुँ जाउँ निकसिलै इनही काज पराऊं ॥ अब उवार नहिं दीखत कतहूं शरण राखिको लेइ । सूरश्यामको वरजति माता वाहिर जान नदेइ ॥३३॥ आसावरी ॥ नंदघरनि ब्रजनारि विचारति । ब्रजहि बसत सब जनम सिराने ऐसे कंस करी नहिं आरति ॥ कालीदहके फूल मँगावत को आनै धौ जाई । व्रजवासी नातरु सव मारौं वांधौं । बलन कन्हाई ॥ यह कहतहि दोउ नैन ढराने नंद घरनि दुखपाइ । सूरश्याम चितवत मातामुख वूझत वात वनाइ ॥३४॥ वूझहु जाइ तातसों वात । मैं वलिजाउँ मुखार्विदकी तुमही काज कंस अकुलात ॥ आए श्याम नंदपै धाए जान्यो मात पिता अकुलात । अवहीं दूरि करौं दुख इनको कंसहिं पठे देउँ जलजात। मोसों कही वात बाबा यह बहुत करत तुम सोच विचार । कहा कहीं तुमसों मेरे प्यारे कंस करत कछु तुमको झाराजवते जनम भयो हरि तेरो कितने करवर टरे कन्हाई । सूरश्याम कुलदेवनि तोको जहां तहां करि लिए सहाई ॥ ३५ ॥ विलावल ॥ तुमहि कहत जो करै सहाई । सो देवता संगही मेरे बजते अनत कहूं नहिं जाई ॥ वह देवता कंस मारैगो केश धरे धरणी घिसि आई। वह देवता मनावहु सबमिलि तुरत कमल जो देइ पठाई ॥ बाबानंद झखत केहि कारण यह कहि माया मोह अरुझाइ । सूरदास प्रभु मात पिताको तुरतहि दुख डारयो बिसराय ॥ ३६॥ नट ॥ खेलन चले कुँवरकन्हाइ । कहत घोष निकास जैए तहां खेले धाइ ॥ गेंदखेलत बहुत बनिहै आनो कोई जाइ ॥ घरही गए सखा श्रीदामा गेंद तुरतही ल्याइ । अपने करलै श्याम देख्यो अतिहि हरष वढाइ।सूरके प्रभु सखा लीन्हे करत खेल बनाइ ॥३७॥ खेलत श्याम सखा लिये संग । इक मारत इक रोकत गेंदहि इक भागत करि नानारंग॥ मारु परस्पर करत आपुमे अति आनंद भए मनमाहिं । खेलतहीमें श्याम सबनिको यमुनातटको लीन्हे जाहि. । मारि भजत जो जाहि ताहि सो मारत लेत आपनो दाव ॥ सूरश्यामके