पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२७१

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(१७८) सूरसागर। | कमल पठाऊँ कोटि कसको दोष निवारौं । तुम देखत पुनि जाउँ कंस जीवत धरिमारौं ॥ ॥ फेट लियो तव झटकिकै चढे कदम पर आइ । सखा हँसत ठाढे सवै मोहन गए पराइ ॥२०॥ श्रीदामा चले रोइ जाइ कहौं नंद आगोगेंद लेहु तुम आइ मोहिं डरपावन लागे।यह कहि कूदि परे सलिल कीन्हे नटवर साज । कोमलतनु धरिक गए जहां सोचत अहिराज ॥२१ यहि अंतर नंदघ रनि कह्यो हरि भूखे हैं ॥ खेलत ते अव आइ भूखकहि मोहिं सुनैहैं । अतिआतुर भीतर चली जेंवन कारन आप। छींक सुनत कुशगुण कह्यो कहा भयो यह पाप।।२२॥ अजिर चली पछितात छींकको दोष निवारण । मंजारी गई काटि तबाह निकसतही वारण ॥ जननी जिय व्याकुल भई कान्ह अबेर लगाई ॥ कुशगुण आजु बहुत भए कुशल रहैं दोउ भाई ॥ २३ ॥ श्याम परे दह कूदि मात जिय गयो जनाई । आतुर आए नंद घरहि वूझत दोउ भाई ॥ नंदघरनिसों यह कहत मोको लगत उदास । एहि अंतर हरि कहां गए जहां कालीको वास ॥ २४ ॥ देख्यो पन्नग जाइ अतिहि निर्भय भयो सोवत । वैठि तहां आहिनारि डरी बालकको जोवत। भागि भागि सुत कौनको अतिकोमल तेरो गात । एक फूंकको नहीं तू विपज्वाला अतितात ॥२६॥ तय हरि कह्यो प्रचारि नारि पति देइ जगाइ । आयो देखन वाहि कस मोहिं दियो पठाइ ॥ कंसकोटि जरि जाहिगे विषकी एक फुकार । कहा कर मेरी जाहि तू अति वालक सुकुमार ॥ २६ ॥ यहि अंतर सव सखा जाइ ब्रजनंद सुनायो। हमसँग खेलत श्याम जाय जलमाँझ फँसायो । डि गयो । उपरयो नहीं ताबातहि बडि वेर । कूदि परयो चढि कदमते खवार न करौ सवेर ॥ २७॥ त्राहि । त्राहि कार नंद सुनत दोरे यमुना तट । यशुमति सुनि यह बात चली रोवत तोति लट ॥ जज वासी नर नारि सब गिरत परत चले धाइ। वूडयो कान्ह सवनि सुनी आत व्याकुल मुरझाइ ॥२८॥ जहँ तहँ परी पुकार कान्ह विन भए उदासी। कौन काहिसा कहै अतिहि व्याकुल ब्रजवासी ॥ नंद यशोदा अतिविकल परत यमुनमें धाइ। और गोप उपनंद मिलि वांहपकारले आइ॥ २९॥ धेनु फिरत विललात बच्छथन कोउ न लगावै । नंद यशोदा कहत कान्ह विन कौन चरावै ॥ यह सुनि व्रजवासी सबै परे धरणि अकुलाइ । हाइ हाइ कार कहत सव कान्ह रह्यो कहां जाइ॥३०॥ नंदपुकारत रोइ बुढापा मोको छाधो । कछु दिन मोहलगाइ जाइ जल भीतर माधो यह कहिकै धरणी गिरत जनु तरु काटि गिराइ । नंदघरनि तव देसकै कान्हहि टेरि बुलाइ॥३॥ निठुरभए सुत आज तातकी छोह नआवति । यह कहिकै अकुलाइ जलहि भीतर को धावति ॥ परत धाइ यमुना सलिल गहि आनति ब्रजनार। नेकरही सव मरहिंगी कोहै जीवनहारि ॥३२॥ श्याम गयो जल बूडि वृथा जगजीवन जनको। शिरफोरति गिरिजाति अभूपण तोरति अंगको॥ मुरछि परी तनु सुधिगई प्राण रह्यो कहुँ जाइ । हलधर आए धाइकै जननि गई सुरछाइ ॥ ३३ ॥ नाकमूदि जल सींचि जननि जननी कहि टेरयौ । वार वार झकझोरि नैक हलधर तन हेन्यौ ॥ कहत उठी वलरामसों वनहि तज्यो लघुभ्रात । कान्ह तुमहि दिन रहत नहिं तुमसों क्यों रहिजात ॥ ३४ ॥ अव तुमहूं जिनि जाहु सखा यकदेहु पठाई । कान्हहि ल्याव जाइ आजु अवसेर कराई॥ छाक पठाऊ जोरिकै मगन सोकसरमांझ॥ प्रात कछू खायो नहीं भूखेढगई सांझ ॥ ३५ ॥ कबहुं । कहति बनगए कबहुँ कहि घरहि बतातति । कहां खेलतही लाल टेरि यह कहति बुलावति ॥ जागि परी दुख मोहते रोवत देखे लोग। तब जान्यो हरि दह गिरयो उपज्यो बहुरि वियोग॥३६॥ धृगधृगनंदहि कह्यो और कितने दिन जीहौ । मरत नहीं मोहिं मारि बहुरि ब्रजवसिहौ कीहौ। ऐसे ।