पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२७४

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दशमस्कन्ध-१० (१८१) धरे यह विनती इक छोटि ॥७२ ॥ अपने सम जो गोप कमल तिन साथ चलाए । मन सबके आनंद कान्ह जलते वचि आए ॥ खेलत खात अन्हातही वासर गयो विहाइ। सूरश्याम ब्रजलोगको जहां तहां सुखदाइ।।७३।५९३ सोरठ ।। तुम जाहु बालक छांडि यमुना स्वामिमेरो जागिहै । अंगकारो मुख विकारो दृष्टि परे तोहि लागिहै ॥ तुम करि बालक युवा खेले केरि दौरत दूरियां । लेहु बालक हीरा पदारथ जागिहे मेरो स्वामियां ॥ नामैं नागिन युवाकर खेले न वारे दुरत दुराइयां। कंसकारण गेंद खेले कमलकारण आइयां ॥ तब धाइ धायो जाइ जगायो मानौ छूटी हस्तियां । सहसफन फुकार छाँडे जाइ काली नाथियां ॥ जव कान्ह काली लेचले तब नागिन विनवै देवहौ । अबके चेरी अहिवात दीजै करहि तुमरे सेवहौ ॥ तव लादि पंकज वाहिर कान्यो भयो ब्रज मन भावना । मथुरानगरी कृष्णराजा सूर तिनहि वधावना ॥ ७४ ॥ देवगंधार ॥ काली विष गंजन दह आए। देखि मृतक बछ वालक सबलै कटाक्ष जिवाए । बहु उतपात होत गोकुलमें सविता रहौ भुलाइ । बडी वेरभई अनहुँ न आए गृहकृत कछु न सुहाइ । नंदादिक सब गोप गोपि मिलि चले सकल वन धाई ॥ दरशे जाइ उरग लपटाने प्राण तजत अकुलाई ॥ अतिगंभीर धीर निज जानत संकर्पनको भाइ । वश कियो नाग सूरदास प्रभु अतिआनंद नसमाइ ॥ ॥९५ ॥ कान्हरो ॥ सबै वजहै यमुनाके तीर । कालीनागके फनपर निर्तत संकर्पणको वीर ॥ लाग मान थेई थेई करि उघटत ताल मृदंग गंभीर प्रेम मगन गावत गण गंधर्व व्योम विमानन धीर । उरग नारि आगे भई ठगढी नैननि ढारति नीर ॥हमको दान देइ पति छाँडहु सुंदर श्याम शरीर॥ आए निकसि पहिरि मणि भूपण पीतवसन कटिचीर । सूरश्यामको भुजभरि भेटत अंकमदेत अहीर ॥ ९६ ॥ सप्तदशमोऽध्याय॥दावानलके पानकी लीला ॥ कान्हरो ॥ दावानल व्रजजनपर धायो । गोकुल ब्रज वृंदावन तृण द्रुम चाहतहै चहुँपास जरायो॥घेरत आवत दशहुँ दिशाते अतिकीने तनुक्रोध। नरनारी सब देखिचकितभए दावा लग्यो चहुँकोध ।। बहुतौ असुर घात किये आवत धावत पवन समाजु । सूरदास बजलोग कहत इह उठ्यो दवा अति आजु ॥९७॥ आइगई दव अतिहि निकटही। यह जानत अब ब्रज नवांचिहै कहत सबै चलिए जलतटही ॥ करि विचार उठि चलन चहतहैं जो देखें चहुँपास । चकृत भए नर नारिं जहां तहां भरिभरि लेत उसास। झरझरात भहरात लपट अति देखिअत नहीं उवार । देखत सूर अग्नि अधिकानी नभलौं पहुंचीझार ॥ ९८॥ दशहुँदिशाते परत दवानल आवतहै ब्रजजनपर धायो । ज्वालाउठी अकास बरावरि घात आपने करि सब पायो॥ वीरा लै आयो सन्मुखते आदरकरि नृपकंस पठायो । जारि करौं परलय क्षणभीतर ब्रज वपुरो केतिक कहवायो॥धरणि अकाश भयो परिपूरण नेकनहीं कहुँ संधिवचायो । सूरश्याम बलरामहि मारन गर्व सहित आतुरकै आयो ॥९९॥ ब्रजके लोग उठे अकुलाइ । ज्वालादेखि अकास बरावरि दशहुंदिशाकहुं पारु नपाइ॥झरहरात बनपात गिरत तरु धरणी तरकि तड़ाकि सुनाइ। जल वरपत गिरिवर तर वाचे अब कैसे गिरिहोतु सहाइ ॥ लटकि जात जरिजार तुम बेली पटकत बांस कांस कुशताल । उचटत फर अंगार गगनलौं सूर निरखि ब्रजजन बेहाल ॥६००॥ नंदघरनि यह कहति पुकार । कोउ वरपत कोउ अगिनि जरावत दई परचोहै खोज हमारे ॥ तव गिरिवर कर धरयो कन्हैया अब न वांचिहै मारत जारे । जेवन करन चली जब भीतर . छींकपरी तिय आज सवारे ॥ ताको फल तुरतहि एक पायो सो उबरयो भए धर्म सहारे । अब सबको संहार होतहै छींक किए यक काज विचारे॥ कैसेहु ए बालक दोउ उवरे पुनि पुनि ।