पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८३

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(१९०) मुरसागर। मुख मुसकानि आनि उर अंतर अंबुज बुधि उपजावतासकुचत अरु विगसित वा छविपर अनुदिन जनम गवांवत ॥ पूरण नहीं सुभग श्यामलको यद्यपि जलधर ध्यावत । वसन समान होत नाहै हाटक अग्निझापदे आवत ॥ मुकतादाम विलोकि विलखि करि अवलि वलाक वनावत। सूरदास प्रभु ललित त्रिभंगी मनमथ मनहि लजावत ॥ ७४ ॥ मारू ॥ निगमते अगम हरि कृपा न्यारी। प्रीतिवश श्यामकी राइकी रंक कोऊ पुरुषकी नारि नहि भेदकारी|प्रीतिवशदेवकी गर्भलीन्हो वास प्रीतिके हेत व्रज भेष कीन्हो । प्रीतिके हेतु यशुमति दियो पयपान प्रीतिके हेतु अवतार लीन्हो ॥ | प्रीतिके हेतु वनधेनु चारत कान्ह प्रीतिके हेतु नंदसुवन नामा । सूरप्रभुको प्रीतिकेहेतु पाइए प्रीतिके हेतु दोउ श्याम श्यामा ॥५६॥ प्रीतिके वश्यहैं मुरारी। प्रीतिके वश्य नटवर भेषधारयो प्रीतिवश करज गिरिराजधारी।।प्रीतिके वश्य व्रजभएमाखनचोर प्रीतिके वश्य दाँवरि बंधाए।प्रीतिके वश्यगोपी खन प्रियानाम प्रीतिके वश्य तरु जमलमोक्षदाइ ॥ प्रीतिवश नंदवधन वरुण सदनगये प्रीतिके वश्य वनधाम कामीप्रीतिके वश्य प्रभु सूर त्रिभुवन विदित प्रीतिवश सदाराधिका स्वामी।। ॥धनाश्रीदिदैरी मैया दोहनी दुहिहों में गैया। माखनखाये वलभयो कार नंददुहैया कजरी धुमरी सेंदुरी धौरी मेरी गैया। दुहिल्याऊं मैं तुरतही तू करिदै धैया ॥ ग्वालनकी सरि दुहतहौं बूझहु पलभैया। सूर निरखि जननी हँसी तव लेति वलया ॥७७॥ सारंग ॥ वावा मोको दुहन सिखायो। तेरे मन परतीति न आवै दुहत अँगुरियन भाव वतायो ॥ अंगुरीभाव देखि जननी तव हसिक श्यामहि कंठ लगायो । आठवर्षको कुअरकन्हैया इतनी बुद्धि कहांते पायो॥ माताले दोहनी कर दीन्हों जब हरि हँसत दुहुनको धायो । सूरयामको दुहत देखि तव जननी मन अति हर्ष वढायो। धनाश्री जननी मथति दधि गोदुहत कन्हाईसखा परस्पर कहत श्याम हमहूं ते तुम करत चडाई। दुहन देहु कछु दिन अरु मोको तब करिहौ मोसम सरिआई। जवलौं एक दुहोगे तवलौं चारि दुहौं तौ नंद दोहाई ॥ झूठहि करत दुहाई प्रातहि देखहिंगे तुम्हरी अधिकाई । सूरश्याम करो कालि दुहेंगे हमहूं तुम मिलि होड लगाई ॥७९॥ राधायशोदाके आईविलावला उठी प्रातही राधिका दोहनी करल्याइामहरि सुतासों तब कह्यो कहांचली अतुराइखिरिक दुहावन जाति हौं तुम्हरी सेवकाइ। तुम ठकुराइनि घर रही मोहिं चेरी पाइ ॥ रीती देखी दोहनी कत खीझत धाइ । कालि गई अवने रकै ह्वां उठे रिसाइ।गाइगई सब प्याइकै प्रातहि नहिं आइौताकारणमैं जातिहौं अतिकरत चडाइ।। यह कहि जननी सों चली बजको समुहाइ । सुरश्याम गृह द्वारही गौ करत दुहाइ ॥ ८॥ बिलावल सुता महर वृषभानुकी नँदसदनहि आई। गृहद्वारही अजिरमें गो दुहत कन्हाई ॥ श्याम चितै मुख राधिका मनहर्ष बढाई । राधा हरिमुख देखिकै तनु सुरति भुलाई ॥ महरि देखि कीरति सुता तेहि लियो बुलाई । दंपतिको सुख देखिकै सूरज बलिलाई ॥८॥ आजु राधिका भोरही यशुमति के आई। महरि मुदित हँसि यों कह्यो मथि भान दोहाई ॥ आयसु लै ठाठी भई करनेत सुहाई । रीतो माट विलोवहीं चित जहां कन्हाई।उनके मनकी कह कहौं ज्यों दृष्टि लगाई। लेई आनो वृष भसो गैया विसराई । नैननिमें यशुमति लखी दुहुँ नकी चतुराई । सूरदास दंपति दशा वरणी नहि जाई ।। ८२॥ महरि कटोरी लाडिली केहि मथन सिखायो। कहाँ मथानी कहां माटहै चित कहां लगायो॥ अपने घर योंही मथै कहि प्रगट देखायो। की मेरे घर आइकै ह्यां सब विसरायो । मथन नहीं मोहिं आवही तुम सौंह दिवायो। तेहि कारणमैं आइकै तुव बोल रखायो। तब नंद, ॥ घरनि मथि दह्यो यहि मांति बतायो । सूर निरखि मुख श्यामको तहां ध्यान लगायो ॥ ८३ ॥ -