पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८४

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दशमस्कन्ध-१० (१९१) सुहा ॥ दुहत श्याम गैयां विसराई। नोआले पगवांधि वृपभके दोहनी मांगत कुँअर कन्हाई॥ ग्वाल एक दोहनी लै दीनी दुहौ श्याम अति करौं चडाई। हँसत परस्पर तारी दैदै आज कहा तुम रहे भुलाई । कहत सखा हरि सुनत नहीं सो प्यारीसों रहे चित अरुझाई । सूरश्याम राधा तन चितवत वडेचतुरकी गई चतुराई।।८४॥राम कलीगराधाएगहरी हैरि तेवैिसे हाल मथत दधि कीन्हे हरिमानो लिखे चितेरे । तेरो मुख देखत शशि लाजै और कह्यो क्यों वाचै । नैना तेरे जलजितहैं खंजनते अतिनाचै ॥ चपलाते चमकत अति प्यारी कहा करोगी श्यामहि । सुनहु सूर ऐसेहि दिन खोवति काज नहीं तेरे धामहि ॥ ८५ ॥ गूलरी ॥ मेरो को नाहिन सुनति । तवहीते एकटक रहीहै कहा मनधौं गुनति ॥ अवहीं ते तू करति एढंग तोहिहै हौन । श्यामको तू ऐसेठगिलियै कछु नजाने जौन ॥ सुताहै वृपभानुकीरी वड़ो उनको नाउ । सूरप्रभु नंदवदन निरखत जननि कहति सुभाउ ॥८६॥ सूहा।प्रगटी प्रीति न रही छपाई। परी दृष्टि वृपभानु सुताकी दोऊ अरुझे निरवारि नजाई । वछरा छोरि खरिकको दीनों आए कान्ह तनु सुधि विसराई । नोवत वृपभ निकसि गैंया गई हँसत सखा कहा दुहत कन्हाई ॥ चारौ नैनभए एकठाहर मनहीमन दोहुँ रुचिउपजाई। सूरदास स्वामी रतिनागर नागरि देखि गई नगराई ॥ ८७॥ चितैयो छोडिदैरी राधा । हिलि मिलि खेलि श्यामसुंदरसों करति कामको बाधा ॥ कीबैठी रहि भवन आपने काहेको वनिआवै । मृगनयनी हरिको मनमोहति जब तू देखिदुहावै ॥ कबहुँक करते गिरति दोहनी कबहुँक विसरत नोई । कबहुँक वृपभ दुहतहैं मोहन नाजानों काहोई ॥ कौन मंत्र जानति तू प्यारी पढि डारति हरिगात । सूरश्यामको धेनु दुहनदे कहति यशोदामात ॥ ८८ ॥ धनाश्री ॥ धेनु दुहनदे मेरे झ्यामहि । जो आवै तौ सहजरूपसो पनि आवति वेकामहि।। सूधे आइ श्यामसंग खेलो बोलो बैगोहि धामहि। ऐसो ढंग मोहिं नहिं भावै लेउ नताके नामहि । घर अपने तू जाहि राधिका कहति महरि मन तामहि । सूरआइ तू करति अचगरी को वकहींनिशियामहि ॥ ८९॥ जैतश्री ॥ वारवार तू जिनि ह्यां आवै । मैं कहा करौं सुतहि नहिं वरजति घरते मोहिं बोलावै ॥ मोसों कहत तोहि विनु देखे रहत न मेरो प्रान । छोहलगति मोको सुनि वाणी महरि तुम्हारी आन ।। मुँह पावति तवहीं लौं आवति औरै लावति मोहिं । सरसमुझि यशुमति उरलाई हँसति कहतिहौं तोहि ॥ ९०॥गौरी ॥ हँसत करो मैं तोसों प्यारी । मनमें कछू विलगु जिनि मानहु मैं तेरी महतारी ॥ बहुतै दिवस आज तू आई राधा मेरे धाम । महरि वडी | मैं सुघरि सुनीहै कछु सिखयो गृहकाम | मैया जब मोहिं टहल कहत कछु खिझत बाचा वृपभान। सूर महरि सो कहति राधिका मानो अतिहि अजान।।९१॥राग रामकली॥दूध दोहनी लैरी मैया। दाऊ टेरत सुनि मैं आऊं तबलों करि विधि धैया। मुरली मुकुट पीतांवरदै मोहिं ले आई महतारी । मुकुट धरयो शिर कटि पीतांबर मुरली करलियो धारी राधा राधा कहि मुरलीमें खरिकहि लई बुलाई। सूरदास प्रभु चतुर शिरोमणि ऐसी बुद्धि उपाई॥९२॥कुँवरि कहो मैं जाति महरिघर। प्रातहि आई खरिक दुहावन कहति दोहनी लैकर ।। तव खरिकहि कोऊ ग्वाल गये नहिं तिन कारण ब्रजआई। जो देखो तो अजिरहि बैठे गैया दुहत कन्हाई॥ तनक दोहनी तनक दुहत मोहिं देखिअधिक रुचि लागीतनक राधिका तनक सूरप्रभु देखि महरि अनुरागी॥९३॥गूनरीगाजावर प्यारी आवत रहियो। महरि हमारी बात चलावति मिलन हमारो कहियो।एक दिवस मैं गई यमुनतटतहां उन देखीआइ।। | मोको देखि बहुत सुख पायो मिलिअंकम लपटाइ ॥ यह सुनिकै चली कुवरि राधिका मोकोभई