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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८७

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सूरसागर।


तनु पुलकि पसीज्यो विसरिगई मुख बैन। ठाढीहै जैसे तैसे धुकि परी धरणि तिहि औन॥ कोउ शिरगहि कोउ कमल कुंकुमा कोउ धाई जललैन। ताहि कछू उपचार नलागै डसी कठिन अहि मन मैन॥ होंपठई यक सखी सयानी अब बोलीदै सेन। सुरश्याम राधिका मिले विनु कहा लागे दुखदैन॥१४॥ केदारो॥ भरि भरि लेत लोचन नीर। तुमविना ब्रजनाथ सुंदरि विरह खेद अधीर॥ कमल उरपर धरत छिन छिनु छिरकि चंदन चीर। जालमग शशि किरिन रोकित मलय मंद समीर॥ हौं जु तुम्हरे पास पठई देखि मनसिज भीरासूरदास सुजान श्रीपति मिलि हरहु तनु परि॥१५॥ सारंग ॥ तनु विष रह्योहै वहु छहरि। नंदसुअन आति गारुरी कहतहैं पठवै धौं महरि॥ गए अवसान भीर नहिं भाव भाव नहिं चहरि। ल्यावो गुणी जाइ गोविंदको बाढीहै अति लहरि॥ देखी डरही विचही खाई मातीहै जहरि। सूरश्याम विषहर कहुँखाई यहकहि चली डहरि॥॥१६॥सुघराई॥ वृषभानुकी घरनी यशोमति पुकारयो। पठैसुतकाज मैं कहतिहौं लाजतजि पाँइपरिकै महरि करति आरयो॥ प्रात खरिकहिगई आय विह्वल भई राधिका कुँअरि कहुड स्योकारे। सुनी यह वात मैं आइ अतुरात ह्यां गारुरी बडोहै सुत तुम्हारे॥ यह बडी धर्म नंदध रनि तुम पाइहौ नेक काहेन सुतको हँकारो। सूर सुनि महरि यह कहि उठी सहजही कहा तुम कहति मेरो अतिहि वारो॥१७॥ कान्हहि पठै महरि कहति पाइँनपरि। अजू कहुँ कारे काहू खाईहै काम कुँवरि॥ सब दिन आवै जाइ जहां तहां फेरि फिरि। अवहीं सरिक गई आईहै जिय बिसरि॥ निशिके उनीदेनैना तैसे रहे टरि टरि। किधौं कहूं प्यारीको तटकी लागी नजरि। तेरो सुत गारुरी सुन्यौहै बावरी महरि। सूरदास प्रभु देखेजैहैरी गरल झरि ॥१८॥ आसावरी॥ यंत्र मंत्र कहाकरि जाने मेरो। यह तुम जाइ गुणिनको बूझहु विनकारण कत करत हों झेरो आठवरषको कुँवर कन्हाई कहा कहत तुम ताहि। किन वहकाइ दईहै तुमको ताहि पकरि लैजाहि॥ मैंतो चकृतभई हौं सुनिकै अति अचरज यह बात। सूरश्याम गारुड़ी कहां को कहआई विततात॥१९॥ रागटोडी॥ महरि गारुरी कुँवर कन्हाई। येक विटिनियां कारेखाई॥ ताको श्याम तुरतही ज्याई। बोलिलेहु अपने ढोटाको तुम कहिकै नेक देहु पठाई। कुँवारराधिका प्रात खरिक गई तहां कहूंधौं कारेखाई। यह सुनि महरि मनाहि मुसकानी अबहिं रही मेरे गृह आई। सूरश्याम राधहि कछु कारण यशुमति समुझि रही अरगाई॥२०॥ आसावरी ॥ तब हरिको टेरति नंदरानी। भली भई सुत भयो गारुरी आजु सुनी श्रवणन यह बानी॥ जननी टेर सुनत हरिआए कहा कहतिरी मैया। कीरति महरि बुलावन आई जाहु न कुँवरकन्हैया॥ कहूं राधिका कारे खाई जाहु न आवहु झारी यंत्र मंत्र कछु जानतहौ तुम:सुरश्याम बनवारी॥२१॥ गूजरी॥ मैया एक मंत्र मोहिं आवै। विषहर खाइ मरै जो कोऊ मोसों मरन नपावै॥ एक दिवस राधा सँग। आई खरिक विटिनियां और। तहां ताहि विषहरने खाई गिरीधरणि वहिठौर॥ यहवाणी वृषभानु। घरनि कहि यशुमति तब पति आई। सूरश्याम मेरो बड़ो गारुरी राधा ज्यावहु जाई॥२२॥॥सुघराई॥ यशोमति कह्यो सुत जाहु कन्हाई। कुँवरि जिवाये अतिहि भलाई॥ आजहि मेरे गृह खेलन आई। जातकहूं कारे तेहि खाई॥ कीरति महरि लिवावन आई। जाहु न श्याम करहु अतुराई सूरश्यामको चली लवाई। गई वृषभानु पुरहि समुहाई॥२३॥ देवगंधार॥ हार गारुरी तहां तब आए। यह बानी वृषभानु सुता सुनि मन मन मन आति हर्षबढाए॥ धन्य धन्य आपुनको कीन्हों अतिहि गई मुरझाइ। तनु पुलकित रोमांचल प्रगट भए आनंद अंशुवहाइ। विह्वल देखि जननि।