पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३००

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दशमस्कन्ध १० (२०७) नंदनंदन ठाउँ । जो रहों घर वैठिक तो रह्यो नाहिनजाई । सीख तैसी देह तुमहीं करौं कहा! उपाइ ।। जात वाहिर बनत नाहीं घर ननेकु सुहाइमोहनी मोहन लगाई कहति सखिन सुनाइ । लाज काज मरजाद जीलों करतिही यह सोचाजाहि विन तन प्राण छांडे कौन बुधि यह पोच ॥१७॥मनहि यह परतीति आई दूरि करिहो दोच । सूर प्रभु हिलिमिलि रहोंगी लाज डारों मोच।। गौरी ॥ सुनह सखीरी वा यमुनातट । हों जल भराति अकेली पनघट गही श्याम मेरीलट ॥ले गागौर शिर मारग डगरी उनपहिरे पीरे पट । देखतरूप अधिक रुचि उपजी काछ बनी किंकिनी रकट ॥ फूलएक ग्वालनिके ज्यों रन जीते फिरै महाभटा सूरलरयो गोपाल अलिंगन सफल किये कंचनघट ॥ १८॥ आसावरी ॥ कहा कहों सखि कहत बनै नहिं नंदनंदन मेरो मन जो हरयो । मात पिता पति बंधु सकुच तजि मगनभई मोहिं सिंधु तरयो । अरुन अधर युग नयन रुचिर हाच मदन मुदित मनसंग लग्यो । देखिदशा कुलकानि लाज सब सहन सुभाउ रह्यो सुधरयो॥ आनंद कंद चंद मुखनिशि दिन अवलोकत यह अमल परयो । सूरदास प्रभुसों मेरी गति जतु लुब्धक करमीन तरयो॥ १९॥ नट ॥ मेरो हरि नागरसों मन मानो। मनमोझो सुंदर ब्रजनायक भलीभई सब जग जानो ॥ विसरी देह गेह सुधि विसरी विसरि गई कुलकी कानो । सूरआश पूजे या मनकी तव भावे भोजन पानो ॥२०॥ काफी ॥ मोही सांवरे सजनी मोहिं गृहवन कछ नसुहाइ । यमुन भरन जल में गई तहां श्याम मोहनी लाइ ॥ ओढे पीरी पावरी हो पहिरे लाल निचोल । भौहें काट कटीलियां मोही मोल लई विनमोल ॥ मोर मुकुट शिरविराजईहो अधर घरे सुखचैन । हरिकी मूरति माधुरी ताते लागिरहे दोउ नैन ॥ मदनमूरतिके वशभये अब भलो बुरो कहे कोई । सूरदास प्रभुको मिलि करि मन एके तनु तन दोई ।। २१॥ रामफली । मेरे जिय ऐसी आनिवनी । विन गोपाल और नहिं जानो मुनि मोसों सजनी ॥ कहा काच संग्रहकेकीने हरि जो अमोल मनी । विपसुमेर कछु काज न आवे अमृत एक कनी ॥ मन वच क्रम मोहिं और न भावे अब मेरे श्याम धनी । सूरदास स्वामीके कारण तजी जाति अपनी ।। २२ ।। गुजरी ॥ अब दृढकार धरी यह वानि । कहा कीजे सोनफा जेहि होइ जियकी हानि ॥ लोकलज्जाकांच किरिचक श्याम कंचन खानि ॥ कोन लीज कौन तजिए सखि तुमहि कहो जानि । मोहितो नहि और सूझत विना विना मृदु मुसकानि । रंग कापे होत न्यारो हरद चूनो सानि ॥ इहै करिहों और तजिहाँ परी ऐसीवानि । सूर प्रभु पति वरत राखै मेटिके कुल कानि ॥ २३ ॥ अध्याय॥ २३॥ लीला यजत्नी ॥ विलावल ॥ एक दिन हरि हलधर संग ग्वालन । गये बन भीतर गोधन चारन ।। सकल ग्वाल मिलि हरिपै आए । भूख लगी कहि वचन सुनाए ।। हरि कहो यज्ञकरत तहां ब्राह्मण। जाहु उनहि निकट भोजन मांगन । ग्वाल तुरत तिनके ढिग आए । हरि हलधरके वचन सुनाए ॥ भोजनदेहु भए वे भूखे । यह सुनिके द्वेगए वै रूखे । यज्ञहेतु हम करीरसोई । ग्वालनपहले देहिं न सोईग्विाल सकल हरिपै चलिआए । हरिसों तिनके वचन सुनाए। हरि हलघर सा हाँस कह्यो वानी। अविगतिकीगति उन नहि जानी॥ तव ग्वालनसों को बुझाई। त्रियन पास तुम माँगहु जाई । उनके तन दृढभक्ति हमारी । मानि लेहि वे वात तुम्हारी ॥ ग्याल बाल त्रियनपै आए। हाथजोरिके शीश नवाये॥ हरि भोजन माग्योहै तुमसों । आज्ञादेहु कहैं सो उनसों। तिन धनि भाग्य आपनो जान्यो।जीवनजन्म सफल करि मान्यो।भोजन बहु प्रकार तिन्ह दीन्हो । काहू अपने शिर धरि लीन्हो ॥ ग्वालीन संग तुरत वे धाई । मन अपने में हर्प वढाई ॥