नंदनंदन ठाउँ॥ जो रहों घर बैठिकै तौ रह्यो नाहिनजाई। सीख तैसी देह तुमहीं करौं कहा उपाइ॥ जात वाहिर बनत नाहीं घर ननेकु सुहाइ। मोहनी मोहन लगाई कहति सखिन सुनाइ॥ लाज काज मरजाद जीलों करतिही यह सोच। जाहि विन तन प्राण छांडे कौन बुधि यह पोच॥१७॥ मनहि यह परतीति आई दूरि करिहो दोच। सूर प्रभु हिलिमिलि रहोंगी लाज डारों मोच॥ गौरी ॥ सुनह सखीरी वा यमुनातट। हों जल भराति अकेली पनघट गही श्याम मेरीलट॥ लौ गागरि शिर मारग डगरी उनपहिरे पीरे पट। देखतरूप अधिक रुचि उपजी काछ बनी किंकिनी रकट॥ फूलएक ग्वालनिके ज्यों रन जीते फिरै महाभट। सूरलरयो गोपाल अलिंगन सफल किये कंचनघट॥१८॥ आसावरी॥ कहा कहों सखि कहत बनै नहिं नंदनंदन मेरो मन जो हरयो। मात पिता पति बंधु सकुच तजि मगनभई मोहिं सिंधु तरयो। अरुन अधर युग नयन रुचिर हाच मदन मुदित मनसंग लरयो। देखिदशा कुलकानि लाज सब सहन सुभाउ रह्यो सुधरयो॥ आनँद कंद चंद मुखनिशि दिन अवलोकत यह अमल परयो। सूरदास प्रभुसों मेरी गति जतु लुब्धक करमीन तरयो॥१९॥ नट ॥ मेरो हरि नागरसों मन मानो। मनमोह्यो सुंदर ब्रजनायक भलीभई सब जग जानो॥ विसरी देह गेह सुधि विसरी विसरि गई कुलकी कानो। सूरआश पूजै या मनकी तब भावै भोजन पानो॥२०॥ काफी ॥ मोही सांवरे सजनी मोहिं गृहवन कछ नसुहाइ। यमुन भरन जल मैं गई तहां श्याम मोहनी लाइ॥ ओढे पीरी पावरी हो पहिरे लाल निचोल। भौहैं काट कटीलियां मोही मोल लई विनमोल॥ मोर मुकुट शिरविराजईहो अधर धरे सुखचैन। हरिकी मूरति माधुरी ताते लागिरहे दोउ नैन॥ मदनमूरतिके वशभये अब भलो बुरो कहै कोई। सूरदास प्रभुको मिलि करि मन एकै तनु तन दोई॥२१॥ रामकली ॥ मेरे जिय
ऐसी आनिबनी। बिन गोपाल और नहिं जानो मुनि मोसों सजनी॥ कहा काच संग्रहके कीने हरि जो अमोल मनी। विषसुमेर कछु काज न आवै अमृत एक कनी॥ मन वच क्रम मोहिं और न भावे अब मेरे श्याम धनी। सूरदास स्वामीके कारण तजी जाति अपनी॥२२॥ गूजरी ॥ अब दृढकार धरी यह वानि। कहा कीजै सोनफा जेहि होइ जियकी हानि॥ लोकलज्जाकांच
किरिचक श्याम कंचन खानि॥ कोन लीजै कौन तजिए सखि तुमहि कहो जानि। मोहिंतो नहि और सूझत विना विना मृदु मुसकानि। रंग कापे होत न्यारो हरद चूनो सानि॥ इहै करिहौं और तजिहौं परी ऐसीवानि। सूर प्रभु पति वरत राखै मेटिके कुल कानि॥२३॥ अध्याय॥२३॥ लीला यजत्नी ॥ विलावल ॥ एक दिन हरि हलधर संग ग्वालन। गये बन भीतर गोधन चारन॥ सकल ग्वाल मिलि हरिषै आए। भूख लगी कहि वचन सुनाए॥ हरि कह्यो यज्ञकरत तहां ब्राह्मण। जाहु उनहि निकट भोजन मांगन। ग्वाल तुरत तिनके ढिग आए। हरि हलधरके वचन सुनाए॥ भोजनदेहु भए वै भूखे। यह सुनिकै ह्वैगए वै रूखे। यज्ञहेतु हम करी रसोई। ग्वालनपहले देहिं न सोई। ग्वाल सकल हरिषै चलिआए। हरिसों तिनके वचन सुनाए। हरि हलघर सौ हँसि कह्यो बानी। अविगति की गति उन नहिन जानी॥ तब ग्वालनसों कह्यो बुझाई। त्रियन पास तुम माँगहु जाई॥ उनके तन दृढ़भक्ति हमारी। मानि लेहि वे वात तुम्हारी॥ ग्याल बाल त्रियनपै आए। हाथजोरिके शीश नवाये॥ हरि भोजन मांग्योहै तुमसों। आज्ञादेहु कहैं सो उनसों॥ तिन धनि भाग्य आपनो जान्यो॥ जीवनजन्म सफल करि मान्यो॥ भोजन बहु प्रकार तिन्ह दीन्हो। काहू अपने शिर धरि लीन्हो॥ ग्वालीन संग तुरत वै धाई। मन अपने में हर्ष बढाई॥
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दशमस्कन्ध १०
