पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१४

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दशमस्कन्ध-१० (२२१) 'रिसकरिकै सुरपति चढि आयो देतो ब्रजहि वहाई । सूरश्यामसों कहति यशोदा गिरि धर वडो कन्हाई ॥२६॥ धरणि धर क्यों राख्यो दिनसात । अतिहि कोमल भुजा तुम्हारी चापति यशमति मात ॥ ऊंचो अति विस्तार भार बहु यह कहि कहि पछितात । वह अपात तेरे तनक तनक कर कैसे राख्यो तात ॥ मुख चूमति हरि कंठ लगावति देखि हँसे वल भ्रात । सूरश्यामको केतिक वात यह जननी जोरति नात ॥ २७॥ कान्हरो ॥ जननी. चापति भुजा श्यामकी ठाढे देखि हँसत वलराम । चौदह भुवन उदरमें जाके गिरिवरधरयो बहुत यह कामकोटि ब्रह्मांड रोम रोमनि प्रति जहां तहां निशि वासर घाम । जोइ आवति सोइ देखि चकृत कहत करे हरि कैसे काम ॥ नाभिकमल ब्रह्मा प्रगटाये देखि जलार्णव तज्यो विश्राम । आवत जात बीचही भट क्यों दुखित भयो खोजत निजधाम ॥ निनसों कहत सकल व्रजवासी कैसेकर राख्यो गिरिश्याम । सूरदास प्रभुजल थल व्यापक फिरि फिरि जन्म लेत नंदधाम||२८|गौरी ॥मात पिता इनके नाहिं कोईआपुहि करता आपुहिहरता त्रिभुवन गए रहतहै जोई।कितिक वार अवतार लियो : ब्रज एहैं ऐसेवोई । जल थल कीट ब्रह्मके व्यापक और न इनसरि होई ॥ वसुधा भार उतारन कारन 'आपु रहत तनुगोहीसुरश्याम माता हितकारी भोजन मांगतरोई ॥२९॥ अथ गोवर्धनकी दूसरी लीला ॥ ॥ विलावल ॥ नंदहि कहति यशोदारानी। सुरपति पूजा तुमहि भुलानी ॥ यह नहिं भली तुम्हारी पानी 'मैं गृहकाज रहौं लपटानी॥ लोभहि लोभ रहेही सानी देवकाजकी सुधि विसरानी ॥ महरि कहति पुनि पुनि यह वानी। पूजाके दिन पहुँचे आनी। सूरदास यशुमतिकी बानी। नंदहि खीझ खीझि पछितानी ॥ १ ॥ नंद कह्यो सुधि भली देवाई। मैतौ राजकाज मनलाई ॥ नित प्रति करत इहे अधमाई । कुल देवता सुरति विसराई। कंसदई इह लोक बड़ाई।गाउँदशक शिरदार कहाई॥ जलधि बूंद ज्यों जलहि समाई। माया जहँकी तहां विलाई । सूरदास यह कहि नँदराई । चरण | तुम्हारे सदा सहाई ॥२॥ कहत महरि तब ऐसी वानी । इंद्रहिकी दीनी रजधानी ॥ कंस करत तुम्हरी अतिकानी । यह प्रभुकीहै आशिप वानी ॥ गोपन बहुत बड़ाई मानी । जहां तहां यह चलति कहानी॥तुम घर मथिये सहस मथानी। ग्वालिनि रहत सदा विततानी॥तृण उपजत उनहीं के पानी। ऐसे प्रभुकी सुरति अलानी॥ सूर नंद मनमें तव आनी। सत्य कहत तुम देव कहानी॥३॥ महर लियो इक ग्वाल बुलाइ।गोपनंद उपनंद बुलाइ ॥अरुआनो वृषभानु लवाइ।तुरत जाहु तुम करहु चॅडाइ ।। यह सुनि ग्वाल गए तहँ धाई। नंद महरकी कही सुनाई ॥ नेक करहु अव ज़िनि विलमाई । मोहिं कहयो सब देहु पठाई ॥ यह सुनिकै सब चले अतुराई । मन मन सोच करत पछिताई।कसकाज जिय मांझ डराई। राजअंश धन दियो चलाई।सूर नंदगृह पहुँचे आई।आदर करि बैठे नंदराई ॥४॥ गोप सबै उपनंद बोलाई। कौनकाज को हम हॅकराई । सुनतेही हम, आतुर आए। कंस कछू कहि मांगि पठाए । इहैजानि अति आतुर आए। सब मिलि कहयो बहुत डरपा ए॥ कालिहि राज अंशदै आए । ग्वाल कहत तुरतहि उविधाएं ॥ महर कहो हम तुम डरवाए हॉसि हँसि कहत अनंद.बढ़ाए ॥हम-तुमको सुखकाज मँगाए। वारवार यहकहि दुखमाए। सूर इंद्र पूजा विसरायोयह सुनतहि शिर सवनि नवाए॥५॥ पूजा सुनत बहुत सुख कीन्हों । भली करी हमको सुधि दीन्हो ॥,यह वाणी सबहिन सुख लीन्हो । बडे देव सब दिनको चीन्हो ॥ इनहीते ब्रजवास वसीनो। हम सब अहिर जाति मतिहीनो ॥ पूजाकी विधिःकरत सबै मिलि । जहि जेहि भांति सदा जैसी चलि॥ विदा माँगिनंदसों गृह आए । घरनि घरनि यह बात चलाए.॥ सूरदास