पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध १० (२ ) कहतहै । ऐसे देव कहां त्रिभुवनहै । कान्ह कह्यो कछु माँगहु इनसों । गिरिदेवता देत परसनसों॥ सूरश्याम देवता आपहै । ब्रजजनके त्रयताप हरतहै ॥ ३१ ॥ नंदकयो कहां मांगी स्वामी । तुम जानत सव अंतर्यामी ॥ अष्टसिद्धि नवनिधि तुमदीनो। कृपासिंधु तुमरोई कीनो । कुशल रहैं बलराम कन्हाई । हम इहि कारण करें पुजाई ॥ देवनकी मणि गिरिवर तुमही जहं तह व्यापक पूरन समहो। तुम हरता तुम करता सबके । देखि थकित नर नारिनगरके वडोदेवता श्याम बतायो.। प्रगटभए सब भोजन खायो । सूरश्यामके जोइ मन आवै । सोइ सोई नानारूप बनावै ॥ ३२ ॥ मांगिलेहु कछु और पदारथ । सेवा सबै भई अवस्वारथ ॥ फलमाग्यो बलराम कन्हाई । येरै रहैं कुशल जुसदाई। इनहीते हम तुमको जान्यो । तब तुम गिरि गोवर्धन मान्यो । करत अवृथा इंद्र पुजाई । मेरी दीनी है ठकुराई | कान्ह तुम्हारोमोको जाने । इनको रैहो तुम सब माने ॥ इंद्र आइ चढिहै व्रजऊपर। यह कहिहै नाहं राखोंभूपर । नेक कछू नहिं वासों हैहै । श्याम उठाइ मोहिं करलेहै । सूरश्याम गिरिवरकी वानी । ब्रजजन सुनत सत्य करि मानी ॥३३॥ कौतुक देखत सुर नर भूले । रोम रोम गद गद सब फूले ॥ सुर विमान सुमनन वरपाए। जयध्वनि शब्द देव नर गाए ॥ देव कह्यो ब्रजवासिनसों तव । पूजा भली करी मेरी सब ॥ जाहु सवै मिलि सदन करौ सुख । श्यामकलो गिरि गोवर्धन मुख । ग्वाल करत स्तुति सब ठाढे। भाव प्रेम सबके चित वाढें । भवन जाहु कहि श्रीमुखवानी । भोजनशेप श्याम कर.आनी ॥ वांटि प्रसाद सबनिको दीन्हो ब्रजनारी नर आनंद कीन्हो ॥ सूरश्याम गोपन सुखकारी । चलौ करो ब्रजको नर नारी॥३४॥ दोउ करजोरि भए सब ठाढे । धन्य धन्य भक्तनके चाढे तुम भोक्ता तुमही प्रभुदाता। अखिल ब्रह्मांड लोकके ज्ञाता। तुमको भोजन कौन करावै। हितवश तुमको कोउ पावै ।। तुम लायक हमरे कछु नाहीं। सुनत श्याम ठाढे मुसकाहीं।ललितासखी देवता चीन्हो चंद्रावली राधिकहि दीन्हो ॥ देव बड़ो इह कुँवर कन्हाई । कृपाजानि हरि ताहि चिन्हाई ॥ सूरश्या म कहि प्रगट सुनाई । भये तृप्त भोजन दिवराई ॥३५ ।। परसत चरण चलत सब घरको । जात चले सर्व घोप शहरको। सुख समेत मग जात चले सव । दूनी भीर भई तवते अव ॥ को आगे कोउ पाछे आवतामारगमें कहुँ औरन पावताप्रथमहि गयो डगर तिन पायो।पाछेके लोगन पछितायो घरपहुँचे अवहीं नहीं कोई।मारगमैं अटके सब लोई ॥ डरो परयो कोस चौरासी।इतने लोग जुरेब्रज वासी ॥ पैंडे चलन नहीं कोउ पावत। कितक दूर ब्रज Jछत आवत । सुरश्याम गुण सागर नागर उत्तम लीला करी उजागर ॥ ३६॥ कोर पहुँचे कोउ मारग माहीीबहुत गए घर बहुतक जाहीं॥ काहूके मन कछु दुख नाहीं। अरस परस हँसि हँसि लपटाहीं ॥ आनंद करत सबै ब्रज आए । निकट आनि लोगन नियराये ॥ भीरभई बहु खोरि जहाँ तहँ । जैसे नदी मिलत सागर महँ। नर नारी सरिता सब आगर । सिंधु मनी इह घोष उजागर ॥ मथनहार हरि रतनकुमारी चंद्रवदन राधा सुकुमारी.॥ सूरश्याम आए नँदशाला । पहुँचे घरनि आइ नरवाला ।। ३७ ॥ वड़ो देवता कान्ह पुजायो । ग्वाल गोप हँसि अंग मिलायो॥ कान्ह धन्य धान यशुमति जायो।ब्रज धनि धनि तुमते कहवायो॥धन्य नंद जिन तुम सुत पायो। धनि धनि देव प्रगट दरशायो।पूजामेटिइंद्र गिरि पूज्यो। परसन हमाहि सदाप्रभु हूज्योकहा इंद्र वपुरा केहि लायक । गिरि देवता सवहिके नायक। सूरदास प्रभुके गुण ऐसौभक्तन वश दुष्टनको नैसे।॥३८॥हरि सबके मन यह उपजाई। सुरपति निंदत गिरिहि || बड़ाई। वर्ष वर्ष प्रति इंद्र पुजाई । कवहूं परसन भयो न आई ॥ पूजत रहौ अविर्था सुरपति ।'