- . श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र। येरे मतिमन्द चन्द ढिगहै अनन्द तेरो जोपै विरहीन जरिजात तेरे तापते । तूतो दोपाकार दूजे धरैहैं कलंकउर तीसरे सखानि संग देखो शिर छापते॥ . कहै मतिराम हाल जाहिर जहान तेरोवारुणीके वासीभासीराहुके प्रतापते । बाँधोगयो मथोगयो पियोगयो खारोभयो वापुरो समुद्र ऐसे पूतहीके पापते ॥९॥ (२) शिवसिंहसरोजमें लिखाहै भूपण त्रिपाठी टिकमापुर जिले कानपुर सं० १७३८ में हुए। रौद्र वीर भयानक ए तीनों रस जैसे इनकी काव्यमें, ऐसे और कवि लोगोंकी कवितामें नहीं पाए जाते ए महाराज प्रथम राजा छत्रशाल परना नरेशके यहाँ छः महीनेतक रहे तेहि पीछे महाराज शिवराज सुलंकी सतारागढ़ वालेके इहां जाय बड़ा मानपाया औ जब यह कवित्त. भूषण जीने पढ़ा (इंद्र जिमि जंभ पर) तव शिवराजने पांच हाथी औ२५ हजार रुपिया इनाम दिया इसी प्रकारसे भूपणने बहुत बार बहुत २ रुपया हाथी घोड़ा पालकी इत्यादि दानमें पाये ऐसे शिवरा- जके कवित्त बनाए हैं जिनकी वरावर किसी कविने वीरयश नहीं बनाय पाया निदान जव भूपण अपने घरको चले तो परना होकर राजा छत्रशालसे मिले छत्रशालने विचारा अब तो शिवराजने इनको ऐसा कुछ धनधान्य दिया है कि हम उस्का दशवां हिस्सा भी नहीं दे सकते ऐसा शोच विचार करि चलते समय भूपणकी पालकीका वांस अपने कंधे पर धरि लिया ब्राह्मण कोमल हृदय तो होतेही हैं भूपणजी बहुत प्रसन्न है यह कवित्त पढ़ा। साहूको सराहों की सराही छत्रशाल को। औ दूसरा यह कवित्त बनाया। तेरी वरछीने वरछीने हैं खलनके । औ दो दोहा बनाय छत्रशालको दै घरमें आए- दोहा-एक हाड़ा वृंदी धनी, मरद महेवावाल । शालत नौरंगजेवके, ए दोनों छत्रशाल ॥१॥ ए देखा छत्तापत्ता, ए देखौ छत्रशाल । ए दिल्लीकी ढाल ए, दिल्ली ढाहनवाल ॥२॥ भूपणजी थोड़े दिन घरमें रहि बहुत देशान्तरोंमें धूमि धूमि रजवाड़ोंमें शिवराजका यश प्रगट करते रहे जव कुमाउंमें जाय राजा कुमाऊंकें यशमें यह कवित्त पढ़ा (उलदत्त मद अनुमद ज्यों जलधिजल)। तब राजाने शोचाकि ये कुछ दान लेने आएहें औ हमने जो सुनाथाकि शिवराजने लाखों रुपया इनको दिया सो सब झूठहै ऐसा विचार हाथी घोड़े मुद्रा बहुत कुछ भूपणके आगे किया भूपणजी चोले इसकी अब भूख नहीं हम इसलिये इहाँ आएथे कि देखें शिवराजका यश यहाँतक फैलाहै या नहीं इनके बनाए हुए ग्रंथ शिवराजभूपण १ भूपणहनारा २ भूपणउल्लास ३ दूपणउल्लास-१ए चारि ग्रंथ सुने जाते, कालिदासजूने अपने ग्रंथ हजाराकी आदिमें ७० कवित्त नवरसके इन्हीं महाराजके वनाएहुए लिखेहैं। (३) विहारीलाल चौबे ब्रजवासी सम्वत् १६०२ हुए ये कवि जयसिंह कछवाहे महाराजे आमेरके इहाँथे जयपुरकी तवारीख देखनेसे प्रगटहै कि महाराजै मानसिंह से जो संवत् १६०२ में विद्यमान थे संवत् १८७६ तक तीनि जयसिंह होगये हैं पर हमको निश्चय है कि ये कवि माहराजे मानसिंह के पुत्र जयसिंहके पास थे जो महागुणग्राहकथे औ दूसरे सवाई जयसिंह इन जयसिंहके प्रपौत्र संवत् १७९५ में थे यह बात प्रगट है कि जब महाराजे जयसिंह किसी एक थोरी अवस्था वाली रानी पर मोहित द्वै रात दिन राजमंदिर में ....
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