पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३०

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दशमस्कन्ध- (२३७.) । एकहि सँग बसिये कैसेरी यहि मग ऐवो ॥ युवतिनको मुख देखि रहतही ललचाने कैसे पैशे । कैसे हार तोरि मेरो डारयो विसरत नाहिँ रिसकर धैवो।सुनुरी सखी ढीठ नँदनंदन चलौ सबै यशो मतिसो हमलरियो । सूरश्याम दधि माखन लीन्हों हारन दैहौं वैर समुझि कहिवो ॥३०॥ सारंग ते कत तोरयो हार नौसरिको मोती वगरि रहे सव वनमें गयो कानको तरिको एअवगुणजू करत गोकुलमें तिलक दिये केसरिको ढीठ गुवाल दहीके माते वोढनहार कमररीको ॥जाइ पुकारे यशुमति आगे कहत जो मोहन लरिको । सुरज श्याम जानि चतुराई जेहि अभ्यास महु वरिको ॥३१॥ विलावल ॥ सुनहु श्याम हम अब चली यशोमतिक आगे। तौ वदियो हमको अवहीं तुमको धरि माँगे । इक इक करी विथराइकै मातिन लर तोरयो । यह सुनि सुनि मुसकाइकै हरि भौंह सकोरयो । चलीमहारपै सुंदरी उरहनलै हरिको अवहीं बोलि बँधाइए लंगर यह लरिको।गईं नंद घरको सबै यशुमति जहां भीतर । देखि महरिको कहि उठीं सुतकीन्हों ईतर ॥ मारग चलन नपाइएरी हरिके आगे । सूरदास प्रभु त्रासते व्रजताज हम भागे ॥३२॥ अपनेरी कुँवर कन्हाई सों माई तू कहति काहिन । आनकी आन कहत नित हमसों उनके मनकी कछु जानति नाहिंन ॥ बहुत बचात व्रजराजकी कानि न हँसति कहा ह्यांते जाहिन । ऐसो भयो कुल कौन तिहारे योवन दान लियो मोपै चाहिन । अति उत्पात कहाँलौ कीजै पीपरको वन दाहिन । आनकी आन कहत नित हमसों उनके मनकी कछु जानत नाहिन काहू विलोकनि वानि सिखायो मैं अब पहिचानति ताहिन । बूझिधौं देखि ह्यां कौन सयानी हार मेरो मन चुरवायो कापहिचाहिन जाइ न मिलो सूरके प्रभुको अरुझेनसों अरुझाहिन ॥३३॥ सुघड़ाई ॥ यशुमति तेरोवारो अतिहि अचगरो। दूध दही माखन लै ढारि दियो सगरो॥ भोर होत नित प्रति करहै झगरो। ग्वाल वाल संग लयेजाइ गहै डगरो॥हम तुम एक सम कौन काते अगरो। लियो दियो कछु सोऊ डारि देह कगरो। सूरदास प्रभु सब गुणनि अगरो। और कहूं जाइरहे छांडि व्रज बगरो॥३४॥सूही ॥ मैं तुम्हरे मनकी सब जानी । आपु सवै इतरातिहै दोषन हेत श्यामकोआनी।। मेरो हरि कह दशहि वरपको तुम्हरी यौवन मद उदमादी । लाज नहीं आवति इन लगारनि कैसे धौं कहि आवति वानी ॥ आपुहि हार तोरि चोली बद उर नखघात बनाइ निशानी । कहाँ कान्हकी तनक अँगुरियां यह कहि बार वार पछितानी ॥ देखहु जाइ और काहूको हरिपर सवै रहत मँडरानी । सूरदास प्रभु मेरो नान्हो तुम तरुणी डोलति अठिलानी ॥३६॥ जयतश्री॥जव दधि वेचन जाहिं तब मारग रोकि रहै। ग्वालिनि देखति धाइरी अंचल आइ गहै ।। अहो नंदकी नारि गारि ऐसी क्यों दीजै । एक ठौर वस वास सुनह ऐसी नहिं कीजै ॥ सुत वैसो तुमहूंतोखीझति को रैहै यहि गाँउँ । जैहैं व्रज तजि अनतही बहुरि सुनो नहिं नाउँ ॥१॥ कहा कहति डरपाइ कछू मेरो घटि जैहै । तुम वाँधति आकाश वात झुठी को सेहे ॥योवन दिन द्वै सवहिको तुम ऐसी इतराति ।झुठेहि कान्हहि दोषदै तुमहीव्रज तजि जाति ॥२॥ हम यह झूठी कही औरसों बाझिन देखौ। हमसो माँगत दान करहि कौडिनको लेखौ। मटुकी डारै शीशते मर्कट लेइ वुलाइ । महाढीठ माने नहीं सखन सहित दधि खाइ॥३॥ ग्वारिन दीठिगँवारि कान्ह मेरो अति भोरो। तेरे गोरस बहुत भयोरी मेरे थोरो ॥ बोलत लाज नहीं तुम हिं सबही भई गवारी । ऐसी कैसे हरि करै कतहि बढ़ावात रारी॥ ४॥ अहो यशोदा महरि पूतकी मानी पीवै । हमाहिं कहाहै होत बहुत दिन मोहन जीवे ॥ सुतके कर्म न जानई करै आपनी टेक । दश गैयन करि कोउ अधिक अहिर जाति सव एक ॥६॥ कहा गैयनकी चली कहा