एकहि सँग बसिये कैसेरी यहि मग ऐबो॥ युवतिनको मुख देखि रहतहौ ललचाने कैसे पैबो। कैसे हार तोरि मेरो डारयो विसरत नाहिं रिसकर धैबो॥ सुनुरी सखी ढीठ नँदनंदन चलौ सबै यशोमतिसो हमलरिबो। सूरश्याम दधि माखन लीन्हों हारन दैहौं वैर समुझि कहिवो॥३०॥ सारंग ॥ तैं कत तोरयो हार नौसरिको मोती वगरि रहे सब वनमें गयो कानको तरिको॥ एअवगुण जू करत गोकुलमें तिलक दिये केसरिको॥ ढीठ गुवाल दहीके माते वोढनहार कमररीको॥ जाइ पुकारैं यशुमति आगे कहत जो मोहन लरिको। सुरज श्याम जानि चतुराई जेहि अभ्यास महु वरिको॥३१॥ विलावल ॥ सुनहु श्याम हम अब चलीं यशोमतिक आगे। तौ वदियो हमको अबहीं तुमको धरि माँगे। इक इक करी विथराइकै मातिन लर तोरयो। यह सुनि सुनि मुसकाइकै हरि भौंह सकोरयो। चलीमहारपै सुंदरी उरहनलै हरिको । अबहीं बोलि बँधाइए लंगर यह लरिको॥ गई नंद घरको सबै यशुमति जहां भीतर। देखि महरिको कहि उठीं सुतकीन्हों ईतर॥ मारग चलन नपाइएरी हरिके आगे। सूरदास प्रभु त्रासते ब्रजतजि हम भागे॥३२॥ अपनेरी कुँवर कन्हाई सों माई तू कहति काहिन। आनकी आन कहत नित हमसों उनके मनकी कछु जानति नाहिंन॥ बहुत बचात ब्रजराजकी कानि न हँसति कहा ह्यांते जाहिन। ऐसो भयो कुल कौन तिहारे योबन दान लियो मोपै चाहिन। अति उत्पात कहांलौ कीजै पीपरको वन दाहिन। आनकी आन कहत नित हमसों उनके मनकी कछु जानत नाहिन। काहू विलोकनि वानि सिखायो मैं अब पहिचानति ताहिन। बूझिधौं देखि ह्यां कौन सयानी हार मेरो मन चुरवायो कापहिचाहिन
जाइ न मिलो सूरके प्रभुको अरुझेनसों अरुझाहिन॥३३॥ सुघड़ाई ॥ यशुमति तेरो बारो अतिहि अचगरो। दूध दही माखन लै ढारि दियो सगरो॥ भोर होत नित प्रति करहै झगरो। ग्वाल बाल संग लयेजाइ गहै डगरो॥ हम तुम एक सम कौन काते अगरो। लियो दियो कछु सोऊ डारि देहु
कगरो। सूरदास प्रभु सब गुणनि अगरो। और कहूं जाइरहे छांडि ब्रज बगरो॥३४॥ सूही ॥ मैं तुम्हरे मनकी सब जानी। आपु सबै इतरातिहै दोषन हेत श्यामकोआनी॥ मेरो हरि कहँ दशहि वरपको तुम्हरी यौवन मद उदमादी। लाज नहीं आवति इन लगारनि कैसे धौं कहि आवति बानी॥ आपुहि हार तोरि चोली बँद उर नखघात बनाइ निशानी। कहाँ कान्हकी तनक अँगुरियां यह कहि बार बार पछितानी॥ देखहु जाइ और काहूको हरिपर सबै रहत मँडरानी। सूरदास प्रभु मेरो नान्हो तुम तरुणी डोलति अठिलानी॥३६॥ जयतश्री ॥ जब दधि बेचन जाहिं तब मारगबढ़ावत
रहै। ग्वालिनि देखति धाइरी अंचल आइ गहै॥ अहो नंदकी नारि गारि ऐसी क्यों दीजै। एक ठौर बसवास सुनह ऐसी नहिं कीजै॥ सुत वैसो तुमहूंतो खीझति को रैहै यहि गाँउँ। जैहैं व्रज तजि अनतही बहुरि सुनो नहिं नाँउँ॥१॥ कहा कहति डरपाइ कछू मेरो घटि जैहै। तुम बाँधति आकाश बात झुठी को सैहै॥ योबन दिन द्वै सबहिको तुम ऐसी इतराति। झुठेहि कान्हहि दोषदै तुमहीं ब्रज तजि
जाति॥२॥ हम यह झूठी कही औरसों बूझि न देखौ। हमसो माँगत दान करहि कौड़िनको लेखौ। मटुकी डारै शीशते मर्कट लेइ बुलाइ। महाढीठ मानै नहीं सखन सहित दधि खाइ॥३॥ ग्वारिन दीठि गँवारि कान्ह मेरो अति भोरो। तेरे गोरस बहुत भयोरी मेरे थोरो॥ बोलत लाज नहीं तुमहिं सबही भई गँवारी। ऐसी कैसे हरि करै कतहि बढ़ावति रारी॥४॥ अहो यशोदा महरि पूतकी मानी पीवै। हमाहिं कहाहै होत बहुत दिन मोहन जीवे॥ सुतके कर्म न जानई करै आपनी
टेक। दश गैयन करि कोउ अधिक अहिर जाति सब एक॥५॥ कहा गैयनकी चली कहा
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दशमस्कन्ध-१०
