पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३३१

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- (२३८) सूरसागर। अब चली जातिको । चकृत भई मैं तुमहि कहत अनमिलत बातकी ॥ जैसी मोसों कहतिही को सुनिक पतिआइ । कौन प्रकृति तुमको परी मोहिं कहौ समुझाइ ॥ ६ ॥ अहो यशोदा बात का लिकी सुनी कि नाहीं । वंशीवटकी छांह गही हरि मेरी वाही। हौं सकुचनि बोली नहीं बहु सखिय नकी भीर । गहि बहियां मोहिं लैचले हंससुताके तीर ॥ ७ ॥ येरी मदमत ग्वालि फिरति जोवन मदमाती । गोरस बेचन हारि गूजरीअति इतराती ॥ अनमिलती बात कहति सुनिपैहै तेरो नाँह । कह मोहन कह तूरहै कवाहि गही तेरी वाँह ॥८॥ सांची सब मैं कहति झुठ नहि कहिहौं तुमसों। सुतकी राखति कानि विलग मानतिहौ हमसों ॥ कुंजनमें क्रीडा करै मनु वाहीको राज । कंस सकुच नहिं मानई रहत भयो शिरताज ॥ ९॥ ऐसी बातें कहति मनहुँ हरि बरष तीसको । दुसह सयो नहिंजाइ नैक डर करहु ईशको ॥ धनि धनि तुम यह कहतिहो मोको आवै लाज । माखन मांगत रोइकै तेहि दोष देत विन काज ॥ १० ॥ हरि जानन हैं मंत्र यंत्र सीखो कहुँ टोना। वनमें तरुण कन्हाई घरहि आवत है छोना। एक दिवस किन देखहू अंतर रहौ छपाइ । दशकोह धौं वीसको नैननि देखौनाइ ॥ ११॥ जाह चली घर आपने नैननि भरिहमदेख्योहै । तीस वीस दश वरप एक दिन सब लेख्योहै ॥ डीठि लगावति कान्हको जरै वरै वै आँखि । धीगरी धींग चाचरि करै मोहिं बुलावति साखि ॥१२॥धींग तुम्हारो पूत धींगरी हमको कीन्ही । सुतको हटकति नाहिं कोटि इक गारी दीन्हीं ॥महतारी सुत दोउ बने वेमग रोकत जाइ।इनाह कहन दुख आइयेये सवको उठति रिसाइ॥१३॥कहाक तुम वात कहूंकी कहूं लगावति।तरुणिन इहै सोहात मोहिं कैसे यह भावति।वहुत उरहनो मोहिं दियो अब ऐसो जनि देहु । तुम तरुणी हरि तरुण नहिं मन अपने गुणिलेहु ॥१४॥ निरउत्तर भई ग्वालि बहुरि कह कछू नआयो। मन उपज्यो कछु लाज गुप्त हरिसों चितलायो । लीला ललित गोपालकी कहत सुनत सुखदाइ । दान चरित सुख देखिकै सूरदास बलिजाइ ॥ १५॥ १०३६ ॥ रामकली ॥ नंद नंदन इक बुद्धि उपाई । जेजे सखा प्रकृतिके जाने ते सब लए बोलाई ॥ सुबल सुदामा श्रीदामा मिलि और महर सुत आए। जो कछु मंत्र हृदय हरि कीन्हौं ग्वालन प्रगट सुनाए।विजयुवती नित प्रति दधि वेचन बनि बनि मथुरा जाति । राधा चंद्रावलि ललितादिक बहु तरुणी यक भांतिकालिंदी तट कालि प्रातही द्रुम चढि रहौ लुकाइ । गोरस लै जवहीं सब आवै मारग रोकहु जाइ ॥ भली बुद्धि इह रची कन्हाई सखनि कह्यो सुख पाई। सूरदास प्रभु प्रीति हृदयकी सब मन गए जनाई॥ ॥३७॥ प्रातहि उठी गोपकुमारि । परस्पर बोली जहां तहाँ यह सुनी वनवारि ॥ प्रथमही उठिसखा आये नंदके दरवाराआइये उठिकै कन्हाई कह्यो वारंवार॥ग्वाल टेरेसुनत यशोदा कुँवर दियोजगाइ। रहे आपुन मौन साधे उठे तव अकुलाइ।मुकुट शिर कटि कसि पीतांवर मुरली लीन्ही हाथ । सूर प्रभु कालिंदी तट गए सखा लीने साथ ॥ ३८ ॥ रामकली ॥ भली करी उठि प्रातहि आए । मैं जानत सब ग्वारि उठी जब तब तुम मोहिं बोलाए ॥ अव आवति है दधि लीन्हे घर घरते अजनारी । हँसे सबै करतारी दैदै आनंद कौतुक भारी ॥ प्रकृति प्रकृतिके जे सब राखे संगी पांच हजार । और पठाइ दिये सूरजप्रभु जेजे अतिहि कुमार ॥३९॥ बिलावल ॥ हँसत सखनि यह कहत कन्हाई । जाइ चढौ तुम सघन द्रुमनि पर जहँतहँ रहौ छिपाई ॥ तवलौं बैठिरहौ मुँह मूंदे जब जानहु अब आई । कूदिपरोगे द्रुमनि द्रुमतिते दैदै नंद दोहाई ॥ चकित होहे जैसे युवती गंण डरनि जाहिं अकुलाई । वेनु विषान मुरलि ध्वनि कीज्यो शंख शब्द पहनाई ॥ नितप्रति जाति Menure- नाम-