पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६०

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- - दशमस्कन्ध १० (२६७) येक संग राधा कान्हाभेद हमसों कियो राधा निठुरभई निदान्ह॥ वीस विरियां चोर कीती कबहुँ मिलिहै साहु । सूर सब दिन चोरको कहुँ होतहै निरवाहु ॥७९॥ कान्हरो ॥ भेदलियो चाहति राधासों। बैठिरहौ अपने घर चुपके कामकहा काहू वाधासों ॥ यह मन दूरि धरौ अपनो लै अति वरखोलि गई कह कीन्हों। कैसे निर्भय रही सबनिसों भेद नकाहुहि दीन्हों ॥ वह कैसे फँग पर तुम्हारे वाके घात नजानों । सूर सबै तुम बड़ी सयानी मोहिं नहीं तुम मानों ॥ ८० ॥ विलावल।। फेरि आइ देखो मैं धरिहौं ।सुनुरीसखी प्रतिज्ञा मोरी तेरी दिन तासों हरिहौं।हमको निदरि रहीहै राधारिसनि रहीमैं जरिहौं । तब मेरे मन धीरज ऐहै चोरी करत पकरिहौं ॥राति दिवस मोहि चैन नहीं अब उनको देखत फिरिहौं । सूरदास स्वामीके आगे नीके ताहिनिदरिहौं ॥८॥ नयनारायण ॥ गोपी इहैं करति चवाउ । देखोधौं चतुराई वाकी हमहि कियो दुराउ ॥ लरिकईते करत एढंग तवै रहै सतिभाउ । अव करति चतुरई जाने श्याम पढाये दाउ ॥ कहालौं करि है अचगरी सबै ए उपजाउ। आज वाची मौन धरि जो सदा होत बचाउ॥ दिवस चारिकभोर पारह रहीं येक सुभाउ । सूर कालिहि प्रगट कैहै करनदै अपडाउ ॥ ८२॥ मूहा बिलावल ॥ कहाकह ति तु पात अयानी । तुम इह कहिति सबै वह जानति हम सवते वह बड़ी सयानी॥ सात वरप ते येरूँग सीखे तुम तो यह आजुहि है जानीवाके छंद भेद को जाने मीन कवहिं धौं पवित पानी॥ हरिके चरित सबै उहि सीखे दोऊहैं वे वारहवानी । कालि गई वाके घर सब मिलि कैसी बुद्धि मौन की ठानी। केती कही नेकु नहिं बोली फिरी आइ तब हमहि खिसानी।सूरश्याम संगतिकी महिमा काहूको नेकहु न पत्यानी ।। ८३ ॥ मारू ॥ तवहि राधा सखियन आई । आवत देखि सवनि मुख मृदो जहां तहां रही अरगाई। मुख देखत सव सकुचि गई यह कहां अचानक आई। करति रहीं चुगुली हम याकी तरुनी गई लजाई ॥ अति आदर करि बैठक दीन्हो कहो कहां तुम आई। कहा आजु सुधि करी हमारी सूरश्याम सुखदाई ॥८४ ॥ रागधनाश्री ॥ मैंकह आजुनिवैरी आई। बहुत आदर करति सबै मिलि पहुनेकी करिये पहुनाई ॥ कैसी बात कहति तू राधा बैठनको नहिं कहिये । तुम आई अपने घरते ह्याँ हमहुँ मौन धरि रहिये ।। जानिलई वृपभानु सुता हँसि कह्यो तरक तुम कीन्हो । सूरदास तादिनको बदलो दाउँ आपनो लीन्हों ॥ ८५ ॥ धनाश्री ॥ दाउँ घाउ तुमही सव जानति।सदा मानि तुमको हम आई अवहूं तैसे मानति।।तुम वह वातगांस कर राख्यो हमको गई भुलाईतादिन कह्यो नहीं मैं जानौ मानि लई सतिभाई ॥ चोर सबनि चोरी कर जानो ज्ञानी मन सब ज्ञानी।सूरदास गोपिनकी वाणी राधा सुनि मुसकानी॥८६॥सखी तुम बात कही यह सांची|जाके हृदय जो कहै मुखते तीन कैसे हरिको नकहि लीक खांची। हरपि वजनारि भरि लेत अंकमवारि सब कहति तू कहा इहवात जाने । हम हँसति कहति तू रिस कहा गहतिरी नागरीरा धिका विलगु माने।तुमहि उलटी कही तुमहि पलटी कहौ तुमहि रिसकरति मैं कछु नजानौं ।सुर प्रभुको नाम मोहिं तुमही कह्योश्रवन यह सुन्योतुम कछू मानो८७॥अथ ग्रीष्मलीला सखिन सहित यमुना विहार ॥ टोडी। पुनि कहि यो अव न्हान चलौगी। तब अपनो मन भायो कीजो जव मोको हरि संग मिलोगी । उहै बात मनमें गहि राखी में जानति कबहुँन विसरोगी । बडी वार मोको भई आए न्हान चलतकी वहुरिलरोगी गहि गहि वाह सवनि करि ठाढी कैसेहू घरते निसरोगी। सूरराधिका कहति. सखिनसों बहुरि आइ घरकाज करोगी॥ ८८॥ मारू ॥ राधिका संग मिलि गोपनारी । चली हिलि मिलि सबै रहसि विहसति तरुनि परस्पर कौतूहल करत भारी ॥ मध्य ब्रजनागरी रूप रसः ।