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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३६०

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दशमस्कन्ध १०


येक संग राधा कान्ह। भेद हमसों कियो राधा निठुरभई निदान्ह॥ वीस बिरियां चोर कीतौ कबहुँ मिलिहै साहु। सूर सब दिन चोरको कहुँ होतहै निरवाहु॥७९॥ कान्हरो ॥ भेदलियो चाहति राधासों। बैठिरहौ अपने घर चुपके कामकहा काहू बाधासों॥ यह मन दूरि धरौ अपनो लै अति वरबोलि गई कह कीन्हों। कैसे निर्भय रही सबनिसों भेद नकाहुहि दीन्हों॥ वह कैसे फँग पर तुम्हारे वाके घात नजानों। सूर सबै तुम बड़ी सयानी मोहिं नहीं तुम मानों॥ ८०॥ बिलावल ॥ फेरि आइ देखो मैं धरिहौं। सुनुरीसखी प्रतिज्ञा मोरी तेरी दिन तासों हरिहौं॥ हमको निदरि रहीहै राधारिसनि रहीमैं जरिहौं। तब मेरे मन धीरज ऐहै चोरी करत पकरिहौं॥ राति दिवस मोहिं चैन नहीं अब उनको देखत फिरिहौं। सूरदास स्वामीके आगे नीके ताहिनिदरिहौं॥८१॥ नटनारायण ॥ गोपी इहैं करति चवाउ। देखोधौं चतुराई वाकी हमहि कियो दुराउ॥ लरिकईते करत एढंग तबै रहै सतिभाउ। अब करति चतुरई जाने श्याम पढाये दाउ॥ कहालौंकरि है अचगरी सबै ए उपजाउ। आजु वाची मौन धरि जो सदा होत बचाउ॥ दिवस चारिकभोर पारहु रहौं येक सुभाउ। सूर कालिहि प्रगट कैहै करनदै अपडाउ॥८२॥ सूहा बिलावल ॥ कहाकहति तु बात अयानी। तुम इह कहिति सबै वह जानति हम सबते वह बड़ी सयानी॥ सात वरषते येरढँग सीखे तुम तौ यह आजुहि है जानी। वाके छंद भेद को जाने मीन कबहिं धौं पवित पानी॥ हरिके चरित सबै उहि सीखे दोऊहैं वे वारहवानी। कालि गई वाके घर सब मिलि कैसी बुद्धि मौन की ठानी॥ केती कही नेकु नहिं बोली फिरी आइ तब हमहि खिसानी। सूरश्याम संगतिकी महिमा काहूको नेकहु न पत्यानी॥८३॥ मारू ॥ तबहि राधा सखियनपै आई। आवत देखि सबनि मुखमूँदो जहां तहां रही अरगाई॥ मुख देखत सब सकुचि गई यह कहां अचानक आई। करति रहीं चुगुली हम याकी तरुनी गई लजाई॥ अति आदर करि बैठक दीन्हो कह्यो कहां तुम आई। कहा आजु सुधि करी हमारी सूरश्याम सुखदाई॥८४॥ रागधनाश्री ॥ मैंकह आजुनिवैरी आई। बहुतै आदर करति सबै मिलि पहुनेकी करिये पहुनाई॥ कैसी बात कहति तू राधा बैठनको नहिं कहिये। तुम आई अपने घरते ह्याँ हमहुँ मौन धरि रहिये॥ जानिलई वृषभानु सुता हँसि कह्यो तरक तुम कीन्हो। सूरदास तादिनको बदलो दाउँ आपनो लीन्हों ॥८५॥ धनाश्री ॥ दाउँ घाउ तुमही सब जानति। सदा मानि तुमको हम आई अबहूं तैसे मानति॥ तुम वह वात गांस कर राख्यो हमको गई भुलाई। तादिन कह्यो नहीं मैं जानौ मानि लई सतिभाई॥ चोर सबनि चोरी कर जानो ज्ञानी मन सब ज्ञानी।सूरदास गोपिनकी वाणी राधा सुनि मुसकानी॥८६॥ सखी तुम बात कही यह सांची। जाके हृदय जो कहै मुखते तौन कैसे हरिको नकहि लीक खांची॥ हरपषि ब्रजनारि भरि लेत अंकमवारि सब कहति तू कहा इहबात जाने। हम हँसति कहति तू रिस कहा गहतिरी नागरी राधिका विलगु मानै॥ तुमहि उलटी कहौ तुमहि पलटी कहौ तुमहि रिसकरति मैं कछु नजानौं। सुर प्रभुको नाम मोहिं तुमही कह्यो श्रवन यह सुन्यो तुम कछू मानो॥८७॥ अथ ग्रीष्मलीला सखिन सहित यमुना विहार ॥ टोडी ॥ पुनि कहि यों अब न्हान चलौगी। तब अपनो मन भायो कीजो जब मोको हरि संग मिलोगी॥ उहै बात मनमें गहि राखी मैं जानति कबहुँन विसरौगी। बडी वार मोको भई आए न्हान चलतकी बहुरि लरोगी॥ गहि गहि वांह सबनि करि ठाढी कैसेहू घरते निसरौगी। सूरराधिका कहति सखिनसों बहुरि आइ घरकाज करोगी॥८८॥ मारू ॥ राधिका संग मिलि गोपनारी। चली हिलि मिलि सबै रहसि विहसति तरुनि परस्पर कौतूहल करत भारी॥ मध्य ब्रजनागरी रूप रस