पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध १० (२८३) । तदपि मुख मुरलिका विलोकति उलटि अनंग जरी ॥ १७ ॥ आसावरी ॥ सखीरी ना जानौं। तवहीते मोको श्याम कहाधौंकीन्होरी। मेरे दृष्टि परे जादिनते ज्ञान जान हरि लीन्होरी॥द्वारे आइ गए औचकही मैं आंगनही ठगीरी । मनमोहन मुख देखि रही तव कामव्यथा तनु वाढीरी ॥ नैन सैन दैदै हरि मोतन कछु एकवात वतायोरी। पीतांवर उपरैना करगहि अपने शीश फिरायोरी॥ लोकलाज गुरुजनकी संका कहत नआवै वानीरी। सूरझ्याम मेरे आँगन आए जात बहुत पछिता नीरी॥४८॥ सोरठ। मन हरिलीन्हो कुँअर कन्हाई । जवते श्याम द्वारकै निकसे तवं तेरी मोहिं घर नमुहाई ।। मेरे हित आइ भये हरि ठाढे मोते कछु न भईरी माई । तवही ते व्याकुल भई डोलति वैरी भए मातपितु भाई ॥ मोदेखत शिरपाग सँवारी हँसि चितये छवि कही नजाई। सुरश्याम गिरि धर वर नागर मेरो मन लैगए चोराई॥१९॥ धनाश्री|प्रेमसहित हरि तेरे आये। कछु सेवा ते करीकि नाहीं कीघों वैसेहि उनहि पठाये।काहेते हरि पाग सँवारी क्यों पीतांवर शीश फिराये। गुप्त भावतो सों कछु कीन्हों पर आए काहे विसराये ॥ अतिही चतुर कहावत राधा वातनहीं हरि क्योंन भुराये। सूरश्यामका वश कार लेती काहेको रहते पछताये ॥५०॥ गुरुजन में बैठी आये हरि वेदी सँवारन मिस पाइलागी।चतुर नायकहू पाग मसकी मनहीमन रीझे गुप्तभेद प्रीति तन जागी॥ हस्तकमल हार हरि हृदय धरे भामिन उत आप कंठलागी। सूरदास अति चतुर नागरी पिये अति नागर दुहुँ कह्यो मनमें सुहाग भागी ॥५१॥ श्याम अचानक आइ गयेरी । मैं बैठी गुरु जन विच सजनी देखतही मेरे नैन नयेरी ॥ तव इक बुद्धि करी में ऐसी वेदीसों कर परस कियो री। आपु हँसे उत पाग मसकी हार अंतर्यामी जानि लियोरी ॥ लेकर कमल अधर परसायो देखि हरपि पुनि हृदय घरयोरी । चरन छुवै दोऊ नैन लगाये मैं अपने भुज अंक भरयोरी ॥ ठाढे रहे द्वार अति हित कार तवहीते मन चोरि गयोरी। सूरदास कछु दोप न मेरो उत गुरुजन इत हेतु नयोरी॥५२॥ करत मोहिं कछुवै तो न बनी। हरि आए चितवतहीरही सखी जैसे चित्र धनी।। अति आनंद हरप आसन उर कमल कुटी अपनी । न्योछापार अंचलकी फहरनि अर्धनैन जल धार घनी ।। गुरुजन लाज कछू नसकी कहि सुनि मन बुधि सजनी । हृदय उमगि कुच कलसप्र गट भये टूटी तरकि तनी ॥ अब उपजाति अति लाज मनहि मन समुझति निज करनी । सूरदास मेरी जडमति मंगल प्रभु माझ गुनी ॥५३॥ सेवा मानि लई हरि तेरी । अब काहे पछिताति राधिका श्याम जात करि फेरी ।। गुरुजनमें भावाहि की पूजा और कही कछु टेरी। मोहन अति सुखपाय गयेरी चाहति हौं कहमरी ॥ तेरे वशभए कुँवर कन्हाई करति कहा अवसेरी । मुरश्याम तुमको अति चाहत तुमप्यारी हरि केरी॥५४॥ आसावरी ॥ राधा भाव कियो यह नीको तुम वेंदी उन पाग छुई।ऐसे भेद कहा कोउ जाने तुमही जानी गुप्त दुई ॥ तुम जुहार उनको जब कीन्हो तुम को उनहु जहार कियो । एकै प्राण देह द्वै कीन्हे तुम वै एकै नहीं वियो । तुम पग परसि नैन पर राख्यो उनि करकमलनि हृदयधरयो।सूरश्याम हृदय तुम राखे तुम उनको ले कंठभरयो॥१६॥ विहागरो।अरी माई एक गाँवके वसत एक वार हरि कीन्ही पहिचानिानिशिदिन रहै दरशकी आशा मिले अचानक आनि ॥ भाग्य दशा आंगनही आये सुंदर सरवस जानि।नीके करि देखनहुँ न पाए. वहिनजाइ कुलकानि। कल न परत हरि दरशन विनरी माहि परी यह वानि । सूरदास विकानीरी हाँनंदसुवनके पानि ॥५६॥ कहा करौं गुरुजन डर मान्यो। आए श्याम कौनहित करिकै मैं अपराधिनि कछू नजान्यो । ठाढे श्याम रहे मेरे आंगन तबते मन उन हाथ विकान्यो। चूकपरी - - -