तदपि मुख मुरलिका विलोकति उलटि अनंग जरी॥४७॥ आसावरी ॥ सखीरी ना जानौं तबहीते मोको श्याम कहाधौंकीन्होरी। मेरे दृष्टि परे जादिनते ज्ञान जान हरि लीन्होरी॥ द्वारे आइ गए औचकही मैं आंगनही ठाढीरी। मनमोहन मुख देखि रही तब कामव्यथा तनु वाढीरी॥ नैन सैन दैदै हरि मोतन कछु एकबात वतायोरी। पीतांबर उपरैना करगहि अपने शीश फिरायोरी॥
लोकलाज गुरुजनकी संका कहत नआवै वानीरी। सूरश्याम मेरे आँगन आए जात बहुत पछितानीरी॥४८॥ सोरठ ॥ मन हरिलीन्हो कुँअर कन्हाई। जबते श्याम द्वारह्वै निकसे तब तेरी मोहिं घर न सुहाई॥ मेरे हित आइ भये हरि ठाढे मोते कछु न भईरी माई। तबही ते व्याकुल भई डोलति
वैरी भए मातपितु भाई॥ मोदेखत शिरपाग सँवारी हँसि चितये छबि कही नजाई। सुरश्याम गिरिधर बर नागर मेरो मन लैगए चोराई॥४९॥ धनाश्री ॥ प्रेमसहित हरि तेरे आये। कछु सेवा तैं करीकि
नाहीं कीधों वैसेहि उनहि पठाये॥ काहेते हरि पाग सँवारी क्यों पीतांबर शीश फिराये। गुप्त भावतो सों कछु कीन्हों घर आए काहे विसराये॥ अतिही चतुर कहावत राधा वातनहीं हरि क्योंन भुराये। सूरश्यामका वश करि लेती काहेको रहते पछताये॥५०॥ गुरुजन में बैठी आये हरिवेदी सँवारन मिस पाइलागी। चतुर नायकहू पाग मसकी मनहीमन रीझे गुप्तभेद प्रीति तन जागी॥ हस्तकमल हरि हरि हृदय धरे भामिन उत आप कंठलागी। सूरदास अति चतुर नागरी पिये अति नागर दुहुँ कह्यो मनमें सुहाग भागी॥५१॥ श्याम अचानक आइ गयेरी। मैं बैठी गुरु जन विच सजनी देखतही मेरे नैन नयेरी॥ तब इक बुद्धि करी मैं ऐसी वेदीसों कर परस कियोरी। आपु हँसे उत पाग मसकी हार अंतर्यामी जानि लियोरी॥ लैकर कमल अधर परसायो देखि हरषि पुनि हृदय घरयोरी। चरन छुवै दोऊ नैन लगाये मैं अपने भुज अंक भरयोरी॥ ठाढे रहे द्वार अति हित कार तबहीते मन चोरि गयोरी। सूरदास कछु दोष न मेरो उत गुरुजन इतहेतु नयोरी॥५२॥ करत मोहिं कछुवै तो न बनी। हरि आए चितवतहीरही सखी जैसे चित्र धनी॥ अति आनंद हरष आसन उर कमल कुटी अपनी। न्योछापार अंचलकी फहरनि अर्धनैन जलधार घनी॥ गुरुजन लाज कछू नसकी कहि सुनि मन बुधि सजनी। हृदय उमँगि कुच कलस प्रगट भये टूटी तरकि तनी॥ अब उपजाति अति लाज मनहि मन समुझति निज करनी। सूरदास मेरी जडमति मंगल प्रभु मांझ गुनी॥५३॥ सेवा मानि लई हरि तेरी। अब काहे पछिताति राधिका श्याम जात करि फेरी॥ गुरुजनमें भावाहि की पूजा और कहौ कछु टेरी। मोहन अति
सुखपाय गयेरी चाहति हौं कहमरी॥ तेरे वशभए कुँवर कन्हाई करति कहा अवसेरी। सूरश्याम तुमको अति चाहत तुमप्यारी हरि केरी॥५४॥ आसावरी ॥ राधा भाव कियो यह नीको तुम वेंदी उन पाग छुई।ऐसे भेद कहा कोउ जानै तुमही जानौ गुप्त दुई॥ तुम जुहार उनको जब कीन्हो तुम को उनहु जहार कियो। एकै प्राण देह द्वै कीन्हे तुम वै एकै नहीं वियो॥ तुम पग परसि नैन परराख्यो उनि करकमलनि हृदयधरयो। सूरश्याम हृदय तुम राखे तुम उनको लै कंठभरयो॥५५॥ विहागरो ॥ अरी माई एक गाँवके बसत एक वार हरि कीन्ही पहिचानि। निशिदिन रहै दरशकी आशा मिले अचानक आनि॥ भाग्य दशा आंगनही आये सुंदर सरवस जानि। नीके करि देखनहुँ न पाए वहिनजाइ कुलकानि। कल न परत हरि दरशन विनरी माहिं परी यह वानि। सूरदास विकानीरी हौं नंदसुवनके पानि॥५६॥ कहा करौं गुरुजन डर मान्यो। आए श्याम कौनहित करिकै मैं अपराधिनि कछू नजान्यो। ठाढे श्याम रहे मेरे आंगन तबते मन उन हाथ विकान्यो। चूकपरी
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दशमस्कन्ध १०
