उपाइ॥ तौ जानो जो अबके अडंगकोसकै देते जाइ। सूरदास स्वामी श्रीपतिको भावत अंतर भाइ सहि नसके रति वचन उलटि हाँस लीनी कंठ लगाइ॥३॥ ईमन ॥ मैं तुमरे गुणजाने श्याम। औरनको मन चोर रहेहौ मेरो मन चोरे किहि काम॥ वै डरपति तुमकोधौं काहे मोको जानत वैसी वाम। मैं तुमको अबहीं बांधौगी मोहिं बूझि जैहो तब धाम॥ मनलोहौं पहुनाई
करिहौं राखा अटकि द्दोस अरुयाम। सूरश्याम यह कौन भलाई चोर रह्यो तहां तुम्हरोनाम॥ कल्याण ॥ ब्रजमे ढीठ भए तुम डोलत। अबतो श्याम परे फँग मेरे सूधे काहे न बोलत॥ मनदीजै मर्यादा जैहे रहत चतुरई कीन्हें। दुखकरि देहु कि सुखकारि दींजै अबतौ बनिहै दीन्हें ऐसे ढंग तुम करत कन्हाई जीति रहे ब्रजगाउँ। सूर आज बहुतै दुख पाये मन कारण पछिताउँ।॥४॥ गुंडमलार ॥ सुनरी कुलकी कानि ललनसों मैं झगरो मांडौगी। मेरे इनके कोउ वीच परौ जिनि अधर दशन खांडोगी॥ चतुरनाइकसों काम परचोहै कैसे ह्वै छांडौगी। सूरदास प्रभु नँद नँदनको रसलै डांडौगी॥५॥ कान्हरो ॥ चोरीके फल तुमहि दिखाऊं। कंचनखंभ डोर कंचनकी देखो तुमहिं बधाऊं॥ खंडों एक अंग कछु तुमरो चोरी नाउँ मिटाऊं। जो चाहौ सोई सब लैहों यह कहि डांड मँगाऊं॥ बीच करन जो आवै कोऊ ताको सौंह दिवाऊं। सूरश्याम चोरनके राजा
बहुरि कहां मैं पाऊ॥६॥ रागगंधारी ॥ रहिरी लाज नहिं काज आज हार पाये पकरन चोरी। मूपि मूपि लेगए मन माखन जो मेरे धन होरी॥ बांधौं कंचनखंभ कलेवर उभै भुना दृढ डोरी। चांपों कठिन कुलिश कुच अंतर सके कौनधों छोरी॥ खंडौं अधर भूलि रस गोरस हरै न काहू कोरी।
दंडौ काम डंड परघरको नाउँ नलेइ बहोरी॥ तबकुलकानि आनि भई तिरछी क्षमि अपराध किसोरी। शिव पर पानि धराइ सूरडर सकुचि मोचि शिरडोरी॥७॥ विहागरो ॥ बीच कियो कुल लज्जा आई। सुनि नागरि वकसी यह मोको सन्मुस आए धाई॥ चूकपरी हरिते मैं जानी मनले गए चुराइ। ठाढे रहे सकुचि तो आगे राख्यो वदन दुराइ॥ तुमहो बड़े महरकी बेटी काहे गई भुलाइ। सूरश्यामहैं चोर तुम्हारे छाँडि देहु डरपाइ॥८॥ गौरी ॥ कुलकी लाज अकाज कियो। तुमविन श्याम सोहात नहीं कछु कहा करौं अति जरत हियो॥ आपु गुप्तकरि राखी मोको मैं आयसु शिरमानि लियो। देह गेह सुधि रहत विसारे तुम ते हितु नहिं और वियो॥ अबमोको
चरणनि तर राखो हंँसिनँदनंदन अंग छियो। सुरश्याम श्रीमुखकी वाणी तुमपै प्यारी वसत जियो॥९॥ जैतश्री ॥ मात पिता अति त्रास दिखावत। भ्राता मारन मोहिंधिरावै देखे मोहि नभावत॥ जननी कहति बड़ेकी बेटी तोको लाज न आवत। पिताकहै कैसी कुल उपजी मनही मन रिसपावत॥ भैनी दोख देत मोहिं गारी काहे कुलहि लजावति। सूरदास प्रभुसों यह कहि कहि अपनी विपति जनावति॥१०॥ विहागरो ॥ सुंदरश्याम कमलदल लोचन। विमुख जननको संगतिको दुख कबधौ करिहौ मोचन॥ भवन मोहिं भाटीसों लागत मरति सोचही सोचन। ऐसी गति मेरी तुम आगे करत कहा जियदोचन॥ धृगवै मात पिता धृग भ्राता देत रहत मोहिं खोचन। सूरश्याम मन तुमहि लुभानो हरद चून रंगरोचन॥११॥ रामकली ॥ कुलकी कानि कहांलौं करिहौं। तुम आगे मैं कहौं नसांची अब काहू नहिं डरिहौं॥ लोग कुटुंब जगके जे कहियत पेला सबहि निदरिहौं। अब यह दुख सहि जात न मोपै विमुख वचन सुनि मरिहौं॥ आपु सुखी तो सब सब नीकेहैं उनके सुख कहा सरिहौं। सूरदास प्रभु चतुरशि
रोमणि अब कैहौं कछु लरिहों॥१२॥ कान्हरो ॥ प्राणनाथहौ मेरी सुरति क्यों न करौ। मैं जु दुख
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दुशमस्कन्ध १०
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