पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८२

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दुशमस्कन्ध १० (२८९) उपाइ ॥ तौ जानो जो अबके अडंगकोसकै देते जाइ । सूरदास स्वामी श्रीपतिको भावत | अंतर भाइ सहि नसके रति वचन उलटि हाँस लीनी कंठ लगाइ॥३॥ ईमन ॥ मैं तुमरे गुण- जाने श्याम । औरनको मन चोर रहेहौ मेरो मन चोरे किहि काम ॥वै डरपति तुमकोधौं काहे मोको जानत वैसी वाम । मैं तुमको अवहीं बांधौगी मोहिं यूझि जैहो तव धाम ॥ मनलोहौं पहुनाई करिहौं राखा अटकि योस अरु याम । सूरश्याम यह कौन भलाई चोर रह्यो तहां तुम्हरोनाम ॥ कल्याण ॥ ब्रजमे ढीठ भए तुम डोलत । अवतो श्याम परे फँग मेरे सूधे काहे न बोलत ॥ मनदीजै मर्यादा जैहे रहत चतुरई कीन्हें । दुखकार देहु कि सुखकारि दीने अवतौ वनिहै दीन्हें ऐसे ढंग तुम करत कन्हाई जीत रहे बजगाउँ । सूर आज बहुतै दुख पाये मन कारण पछिताउँ । ॥४॥डमलार।। सुनरी कुलकी कानि ललनसों मैं झगरो मांडौगी। मेरे इनके कोउ वीच परौ जिनि अधर दशन खांडोगी ॥ चतुरनाइकसों काम परचोहै कैसे लै छोडौगी । सूरदास प्रभु नँद नँदनको रसले डाडौगी॥६॥ कान्हरो ॥ चोरीके फल तुमहि दिखाऊं। कंचनखंभ डोर कंचनकी देखो तुमहिं वधाऊं ॥ खंडों एक अंग कछु तुमरो चोरी नाउँ मिटाऊं। जो चाहो सोई सब लैहों यह कहि डांड मँगाऊं ॥ बीच करन जो आवै कोऊ ताको सौंह दिवाऊं । सूरश्याम चोरनके राजा वहरि कहां में पाऊ॥६॥ रागगंधारी ॥ रहिरी लाज नहि काज आज हार पाये पकरन चोरी। मूपि मूपि लेगए मन माखन जो मेरे धन होरी ॥ बांधों कंचनखंभ कलेवर उभै भुना दृढ डोरी। चांपों कठिन कुलिश कुच अंतर सके कौनधों छोरी ॥ संडौं अधर भूलि रस गोरस हरैन काहू कोरी। दंडी काम डंड परपरको नाउँ नलेइ वहोरी ॥ तबकुलकानि आनि भई तिरछी क्षमि अपराध किसोरी । शिव पर पानि धराइ सूरडर सकुचि मोचि शिरडोरी ॥७॥ विहागरो ॥ बीच कियो कुल लजा आई। सुनि नागरि वकसी यह मोको सन्मुस आए धाई ॥ चूकपरी हरिते मैं जानी मनले गए चुराइ । ठाढे रहे सकुचि तो आगे राख्यो वदन दुराइ ॥ तुमहो बड़े महरकी बेटी काहे गई भुलाइ । सूरश्यामहें चोर तुम्हारे छाँडि देहु डरपाइ ॥ ८॥ गौरी ॥ कुलकी लाज अकाज कियो। तुमविन श्याम सोहात नहीं कछु कहा करी अति जरत हियो ॥ आपु गुप्तकरि राखी मोको मैं आयसु शिरमानि लियो। देह गेह सुधि रहत विसारे तुम ते हितु नहिं और वियो । अवमोको चरणनि तर राखो हंसिनदनंदन अंग छियो । सुरश्याम श्रीमुखकी वाणी तुम प्यारी वसत नियो ॥ ९॥ नैतश्री ॥ मात पिता अति वास दिखावत । भ्राता मारन मोहिंधिरावे देखे मोहि नभावत ॥ जननी कहति बड़ेकी वेटी तोको लाज न आवत । पिताकहै कैसी कुल उपजी मनही मन रिसपावत ॥ भैनी दोख देत मोहिं गारी काहे कुलहि लजावति । सूरदास प्रभुसों यह कहि कहि अपनी विपति जनावति ॥ १०॥ विहागरो ॥ सुंदरश्याम कमलदल लोचन । विमुख जननको संगतिको दुख काधों करिही मोचन ॥ भवन मोहिं भाटीसों लागत मरति सोचही सोचन । ऐसी गति मेरी तुम आगे करत कहा जियदोचन ॥ धृगवे मात पिता धृग भ्राता देत रहत माहि खोचन । सूरश्याम मन तुमहि लुभानो हरद चून रंगरोचन ॥ ११॥ रामफली ॥ कुलकी कानि कहांलौं करिहौं । तुम आगे मैं कहीं नसांची अव काहू नहिं डरिहौं ॥ लोग कुटुंब जग जे कहियत पेला सहि निदरिहौं । अब यह दुख सहि जात न मोपै विमुख वचन सुनि मरिहौं ॥ आपु सुखी तो सब सब नीकेहैं उनके सुख कहा सरिहौं । सूरदास प्रभु 'चतुरशि रोमणि अब कहाँ कछु लरिहों॥ १२ ॥ कान्हरो ॥ प्राणनाथहौ मेरीसुरति क्यों न करौ। मैं जु दुख