उत कोउ न टरे। सूरझ्याम श्यामा रति रणते एक पग पल न टरे॥९९॥ विभास ॥ श्यामा श्याम सेज उठि बैठे अरस परस दोउ करत विहार। उन उनकी पहिरी मोतिनकी माला उन उनको पहिरयो नव सरिहार॥ लटपट पेंच सँवारति प्यारी अलक सँवारत नंदकुमार। सूरदास
प्रभु नागरि नागर विपरीत भूपण करत श्रृंगार॥१६००॥ ललित ॥ करि श्रृंगार दोऊ अलसाने। प्रथम बोल तमचुर सुनि हरषे पुनि पौढे दोऊ लपटाने॥ रति रण युद्ध याम त्रय नीके सेज परे उठि पुनि मुरझाने। मानों सूर खेत सम लरिकै गिरे उठत फिरि गिरे लजाने॥१॥ ललित ॥ बोले तमचुर चारो यामको गजर मारयो पौन भयो शीतल तमतमता गई। प्राचीरवि अरुणानी मानि किरिन उज्यारी नभ छाई उडगन चंद्रमा मलिनता लई॥ मुकुले कमल बच्छ बंधन बिछोहि ग्वाल चरै चली गाइ द्विज पैंती करको दई॥ सूरदास राधिका सरसवानी बोलि कहै जागो प्राणप्यारे जू सबारेकी समै भई॥२॥ विभास ॥ चिरई चुहचुहानी चंदकी ज्योति परानी रजनी विहानी प्राची पियरी प्रवानकी। तारिका दुरानी तमचुरबोले श्रवण भनक परी ललितकेतानकी। भृंग मिले भारजा विछुरी जोरी कोक मिले उतरी पनच अब कामके कमानकी। अथवत आये गृह बहुरि उवत भान उठौ प्राणनाथ महा जान मणि जानकी॥ ब्रज घर घर इहै करत चवाव लोग वार वार कहनि करनि पग आनकी। सूरदास प्रभु नंदसुवन सिधारो धाम सुनत उठनि छबि कृपाके निधानकी॥३॥ बिलावल ॥ जागिये प्राणपति रैनि वीती। चंद्रकी दुतिगई पहै पीरीभई सकुच नाही दई अतिहि भीती॥ मात पितु बंधु गुरुजन अबहि जानिहैं लखै जिनि कहूं यह लाज भारी। सखिन आगे नहीं नहीं सब दिन कही मोहि घेरे रहति सबै नारी॥ उठे
मुसुकाइ अकुलाइ अतुराइकै निकसि गए श्याम ब्रजनारि जान्यो। सूर प्रभु नंदनंदन दरशदै गये निरखि यकटक रही पल भुलान्यो॥४॥ बिलावल ॥ प्रगट दरशदै गए कन्हाई। राधा गृहते निकसत देखे यह उनकी मन साध पुराई॥ शीश मुकुट मोतिन उरमाला पीतांबर पट सहज
फिराई। श्याम वरन तन निरखि भुलानी अंग अंग छबि कह्यो न जाई॥ करति सोच राधा मन अपने आलस भरे गये हरिमाई। सूरश्याम निशि नेक न सोये इहै कहति पुनि पुनि पछिताई॥५॥ बिलावल ॥ श्याम गये देखै जिनि कोई। सखियनसों निबहन पुनि पैहौं इनि आगे राखों रसगोई॥ देखै आइ द्वारकै नागरि जहां तहां ब्रजनारी। सकुचि गई युवतिनके देखत दुखकीन्ही जिय भारी॥ मन चिंता अतिही उपजायो बारबार पछितानी।
सुरश्यामसों प्रीति गुप्तही आज सबनि इन जानी॥६॥ बिलावल ॥ बार बार राधा पछितानी। निकसे श्याम सदन मेरेते इन अटकरि पहिचानी॥ नितही नित बूझति ये मोसों मैं इन पर सतराति। अबतौ हरि प्रगटही देखे पुनि पुनि कहति लजाति॥ यक ऐसेहि झकझोति मोको ।
पायो नीको दोउ। सूर आजु केहि भांति दुराऊ सोचति करति उपाउ॥७॥ सोच परयो मन राधिका कछु कहत न आवै। कछु हरषे कछु दुख करै मन मौज बढ़ावै॥ निशि रस रंगहि में पगी तनुसुधि विसरावै। कबहुँ विचाराति निठुर ह्वै सखि ज्वाब न आवै॥ अबहीं मोको बूझिहे युवती चतुरावे॥ तिन सन्मुख कैहो कहा प्रभु सूर मनावै॥८॥ नटनारायण ॥ कबहूं मगन हरिके नेह। श्याम सँग निशि सुरतिको सुख भूलि अपनी देह॥ जबहि आवति सुधि सखिनकी रहति अति सरसाइ। तब करति हरि ध्यान हिरदै चरण कमल मनाइ॥ होइ ज्यों परबोध उनको मेरी पति जिनिजाइ। निदरि निदीर सबको रहीहूं आजुलों यहि भाइ। अबहिं सब जुरि आइहैं ह्यां तुम विना न उपाइ। सूरप्रभु।
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दशमस्कन्ध-१०
