पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९२

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दशमस्कन्ध-१० (२९९) उत कोउ न टरे । सूरझ्याम श्यामा रति रणते एक पग पल न टरे ॥ ९९ ॥ विभास ॥ श्यामा श्याम सेज उठि बैठे अरस परस दोउ करत विहार । उन उनकी पहिरी मोतिनकी माला उन उनको पहिरयो नव सरिहार ॥ लटपट पेंच सँवारति प्यारी अलक सँवारत नंदकुमार । सूरदास प्रभु नागरि नागर विपरीत भूपण करत शृंगार ॥ १६०० ॥ ललित ॥ करि श्रृंगार दोऊ अलसाने । प्रथम वोल तमचुर सुनि हरपे पुनि पौढे दोऊ लपटाने ॥ रति रण युद्ध याम त्रय नीके सेज परे उठि पुनि मुरझाने । मानों सूर खेत सम लरिकै गिरे उठत फिरि गिरे लजाने ॥ १ ॥ ललित ।। वोले तमचुर चारो यामको गजर मारयो पौन भयो शीतल तमतमता गई । प्राचीरवि अरु पानी मानि किरिन उज्यारी नभ छाई उडगन चंद्रमा मलिनता लई ॥ मुकुले कमल बच्छ बंधन विछोहि ग्याल चरै चली गाइ द्विज पैती करको दई । सूरदास राधिका सरसवानी बोलि कहे जा गो प्राणप्यारे जू सवारेकी समै भई ॥२॥ विभास ॥ चिरई चुहचुहानी चंदकी ज्योति परांनी रजनी विहानी प्राची पियरी प्रवानकी । तारिका दुरानी तमचुरखोले श्रवण भनक परी ललितके तानकी । ग मिले भारजा विछुरी जोरी कोक मिले उतरी पनच अब कामके कमानकी । अथ वत आये गृह बहरि उक्त भान उठो प्राणनाथ महा जान मणि जानकी ॥ व्रज घर घर इहै करत चवाव लोग वार वार कहनि करनि पग आनकी । मुरदास प्रभु नंदसुवन सिधारो धाम सुनत उठनि छवि कृपाके निधानकी ॥ ३॥ विलावल ॥ जागिये प्राणपति रेनि वीती । चंद्रकी दुतिगई पहै पीरीभई सकुच नाही दई अतिहि भीती ॥ मात पितु बंधु गुरुजन अवहि जानिहैं लखै जिनि कहूं यह लाज भारी। सखिन आगे नहीं नहीं सब दिन कही मोहि घेरे रहति सबै नारी ॥ उठे मुसुकाइ अकुलाइ अतुराइकै निकसि गए श्याम वजनारि जान्यो । सूर प्रभु नंदनंदन दरशदै गये निरखि यकटक रही पल भुलान्यो॥४॥ विलावल ॥ प्रगट दरशदै गए कन्हाई । राधा गृहते निकसत देखे यह उनकी मन साध पुराई ॥ शीश मुकुट मोतिन उरमाला पीतांवर पट सहज फिराई । श्याम वरन तन निरखि भुलानी अंग अंग छवि कह्यो न जाई ॥ करति सोच राधा मन अपने आलस भरे गये हरिमाई । सूरश्याम निशि नेक न सोये इहै कहति पुनि पुनि पछिताई ॥ ५ ॥ विलावल ॥ श्याम गये देख जिनि कोई । सखियनसों निवहन पुनि पैहो इनि आगे राखों रसगोई ॥ देखे आइ द्वारकै नागरि जहां तहां बजनारी । सकुचि गई युवतिनके देखत दुखकीन्ही जिय भारी ॥ मन चिंता अतिही उपजायो वारवार पछितानी। सुरश्यामसों प्रीति गुप्तही आज सवनि इन जानी ॥६॥ विलावल ॥ वार वार राधा पछितानी। निकसे श्याम सदन मेरेते इन अटकरि पहिचानी ॥ नितही नित झाति ये मोसों में इन पर सतराति । अवती हरि प्रगटही देखे पुनि पुनि कहति लजाति ॥ यक ऐसेहि झकझोति मोको । पायो नीको दोउ । सूर आजु केहि भांति दुराऊ सोचति करति उपाउ ॥ ७॥ सोच परयो मन राधिका कछु कहत न आवै । कछु हरपे कछु दुख करै मन मौज बढ़ावै।। निाश रस रंगहि में पगी तनुसुधि विसरावे । कबहुँ विचाराति निठुर कै सखि ज्वाव न आवै।।अवहीं मोको बूझिहे युवती चतु रावे ॥ तिन सन्मुख केहो कहा प्रभु सूर मनावै॥ ८॥ नटनारायण ॥ कवहूं मगन हरिके नेह । श्याम सँग निशि सुरतिको सुख भूलि अपनी देहानियाहि आवति सुधि सखिनकी रहति आत सरसाइतिव करति हरि घ्यान हिरदै चरण कमल मनाइ ॥ होइ ज्यों परवोध उनको मेरी पति जिनिजाइ। निदरि निदीर सबको रहीहूं आजुलों यहि भाइ । अवहिं सब जुरि आइहैं ह्यां तुम विना न उपाइ। सूरप्रभु। % 3D -