कीन्हें। मैं कह्यो नैन मोको संग देहिंगे इन्हहुँ लै जाइ हरि हाथ दीन्हे॥ जो कहूँ कछू सो मनहिं सों कहि रहैं इहां कछु श्यामको दोष नाहीं। सूर प्रभु नैन लै मोल अपवश किए आपु बैठे रहत तिनहि माहीं॥ बिलावल ॥ कहा भए जो ऐसे लोचन मेरे तो कछु काज नहीं। मैं तो व्याकुल भई पुकारति वै सँग लै जु गए मनहीं॥ त्रिभुवनमें अति नाम जगायो फिरत श्याम सँगही सँगही। अपने सुखको कहा चाहिये बहुरि न आए मोतनही॥ सोसुपूत परिवार चलावै एतौ लोभी धृग इनही। एते पर ए सूर कहावत लाज नहीं ऐसे जनही॥ कान्हरो ॥ इन बातन कहुँ होत बडाइ। लूटतहैं छबिराशि श्यामकी मनो परीनिधि पाइ॥ थोरेही में उघरि परैंगे अतिहि चले इतराइ। डारत खात देत नहिं काहू वोछे घर निधि आइ॥ यह संपतिहै तिहं भुवनकी सबै इनहि अपनाइ। धोखे रहत सूरके स्वामी काहू नहीं जनाइ॥ बिलावल ॥ नैन परे हैं बहु लूटनि में मैं नोखे निधिपाए। छोह लगत वह समुझिकै इन हमहिं जिवाए॥ इनके नेक दया नहीं हम पर रिस पावैं। श्याम अक्षयनिधि पाइकै तउ कृपण कहावें॥ ऐसे लोभी ए भए तब इनहि न जान्यो। संगहि संग सदा रहैं अतिहित करि मान्यो॥ जैसी हमको इन करी यह करै न कोई। सूर अनल कर जो गहै डाढै पुनि सोई॥ कान्हरो ॥ नैन आपने घर केरी। लूटन देह श्याम अंगसोभा जो हम पर वै तरसैरी॥ यह जानी नीके कर सजनी नहीं हमारे डरकरी॥ वै जानत हम सरि को त्रिभुवन ऐसे रहत निधरकेरी॥ ऐसी रिस आवत है उन पर करैं उनहि घर घर केरी। सूर श्याम के गर्व भुलाने वै उनपर हैं ढरकेरी॥ गौरी ॥ नैना कहयो न मानै मेरो। मो बरजत बरजत उठि धाए बहुरि कियो नहिं फेरो॥ निकसे जल प्रबाहकी नाई पाछे फिरि न निहारयो। भवं जंजाल तोरि तरुवन के पल्लव हृदय विदारयो। तबहीं ते यह दशा हमारी जब एक गए त्यागि। सूरदास प्रभु सों वे लुब्धे ऐसे बड़े सभागि॥ टोडी ॥ इन नैननि मोहिं बहुत सतायो। अबलौं कानिकरी मैं सजनी बहुतै मूंड चाढायो॥ निदरे रहत गहे रिस मोसों मोहीं दोष लगायो। लूटत आपुन श्री अंग सोभा मनो निधनि धनपायो। निशहू दिन ए करत अचगरी मनाहि कहाधौं आये। सुनहु सूर इनको प्रतिपालत आलस नैक न आयो॥ रामकली ॥ लोचन भए श्यामके चेरे। एते पर सुख पावत कोटिक मोतन फेरि नहेरे॥ हाहा करत परत हरि चरणन ऐसे बश्य भएउनही॥ उनको वदन विलोकत निशि दिन मेरो कह्यो न सुनही॥ ललित त्रिभंगी छबि पर अटके फटके मोसों तोरि। सूरदास यह मेरी कीन्ही आपुन हरिसों जोरि॥ धनाश्री ॥ हरि छबि देखि नैन ललचाने। इक टक रहे चकोर चंद ज्यों निमिष बिसरि ठहराने॥ मेरो कह्यो सुनत नहिं श्रवनन लोक लाज न लजाने। गये अकुलाइ धाइ मो देखत नेकहु नहीं सकाने॥ जैसे सुभट जात रण सन्मुख लडत न कबहुँ परने। सूरदास ऐसी इन कीनी श्याम रंग लपटाने॥ गुंडमलार ॥ नैन तो कहे में नहीं मेरे। बारही बार कहि हटकि राखति निकसि गये हरि संग नहि रहे घेरे॥ ज्यों व्याध फंदते छूटत खग उडि चलत तहां फिरि तकत नहिंत्रासमाने। जाइ वन द्रुमनि में दुरत योंही गये श्याम तनु रूप बन में समानें॥ पालि इतने किए आज उनके भए मोल करिलए अब श्याम उनको। सूर यह काँति ब्रजनारि ब्याकुल भई प्रेममें नैन लैगये पछितात मनको॥ जतश्री ॥ नैना हाथ न मेरे आली। इत ह्वै गये ठगोरी लावत सुंदर कमल नैन बनमाली॥ वे पाछे ए आगे धाये मैं बरजत बरजत पचिहारी। मेरे तन ह्वै फेरि न चितए आतुरता वह कही कहारी॥ जैसे बरत भवन तजि भजिए तैसेहि गये फेरि नहिं हेरयो। सूरश्याम रस रसे रसीले पय पानीको करै निबेरयो॥ रामकली ॥
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दशमस्कन्ध-१०
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