पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४१४

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दशमस्कन्ध-१० (३२१) : कीन्हें । मैं कह्यो नैन मोको संग देहिंगे इन्हहुँ ले जाइ हरि हाथ दीन्हे ॥ जो कहूँ कळू सो मनहिं सों कहि रहैं इहां कछु श्यामको दोप नाहीं । सूर प्रभु नैन लै मोल अपवश किए आपु बैठे रहत तिनहि माहीं ॥ बिलावल ॥ कहा भए जो ऐसे लोचन मेरे तो कछु काज नहीं । मैं तो व्याकुल भई पुकारति वै सँग लै जु गए मनहीं ॥ त्रिभुवनमें अति नाम जगायो फिरत श्याम सँगही सँगही। अपने सुखको कहा चाहिये बहुरि न आए मोतनही ॥ सोसुपूत परिवार चलावै एतौ लोभी धृग इनही । एते पर ए सूर कहावत लाज नहीं ऐसे जनही ॥ कान्हरो ॥ इन वातन कहुँ होत वडाइ। लूटतहैं छविराशि श्यामकी मनो परीनिधि पाइ॥ थोरेही में उपरि परेंगे अतिहि चले इतराइ । डारत खात देत नहिं काह वोछे घर निधि आइ यह संपतिहै तिहं भुवनकी सबै इनहि अपनाइ। धोखे रहत सूरके स्वामी काहू नहीं जनाइ। विलावल नैन परे हैं बहु लूटान में मैं नोखे निधिपाए। छोह लगत वह समुझिक इन हमहिं जिवाए ॥ इनके नेक दया नहीं हम पर रिस पाएँ । श्याम अक्षयनिधि पाइकै तउ कृपण कहावें ॥ ऐसे लोभी ए भए तब इनहि न जान्यो । संगहि संग सदा रहें अतिहित कार मान्यो ॥ जैसी हमको इन करी यह करै न कोई । सूर अनल. कर जो गहै डाटै पुनि सोई॥ कान्हरो। नैन आपने घर केरी। लूटन देह श्याम अंगसोभा जो हम पर वै तरसैरी ॥ यह जानी नीके कर सजनी नहीं हमारे डरकरी ॥ वैजानत हम सरि को त्रिभुव न ऐसे रहत निधरकेरी ॥ ऐसी रिस आवत है उन पर करें उनहि घर घर केरी। सूर श्याम के गर्व भुलाने वै उनपर हैं ढरकेरी।। गौरी ॥ नैना कहयो न माने मेरो। मोवरजत बरजत उठि धाए बहुरि कियो नहिं फेरो॥निकसे जल प्रवाहकी नाई पाछे फिरि न निहारयो । भवं जंजाल तोरि तरुवन के पल्लव हृदय विदारयो। तवहीं ते यह दशा हमारी जब एक गए त्यागि । सूरदास प्रभु सों वे लुब्धे ऐसे बड़े सभागि ॥ टोडी ॥ इन नैननि मोहिं बहुत सतायो । अवलों कानिकरी मैं सजनी बहुतै मूंड चायो । निदरे रहत गहे रिस मोसों मोही दोष लगायो। लूटत आपुन श्री अंग सोभा मनो निधनि धनपायो । निशहू दिन ए करत अचगरी मनाहि कहाधौं आर्यो । सुनहु सूर इनको प्रतिपालत आलस नैक न आयो ॥ रामकली ॥ लोचन भए श्यामके चेरे । एते पर सुख पावत कोटिक मोतन फेरि नहेरे।हाहा करत परत हरि चरणन ऐसे वश्य भएउनही । उन को वदन विलोकत निशि दिन मेरो कहो न सुनही ॥ ललित त्रिभंगी छवि पर अटके फटके मो सों तोरि। सूरदास यह मेरी कीन्ही आपुन हरिसों जोरिशाधनाश्री ॥ हरि छवि देखि नैन ललचाने। इक टक रहे चकोर चंद ज्यों निमिष विसरि ठहराने ॥ मेरो को सुनत नहिं श्रवनन लोक लाज न लजाने । गये अकुलाइ धाइ मो देखत नेकह नहीं सकाने ॥ जैसे सुभट जात रण सन्मुख लडत न कबहुँ परने। सूरदास ऐसी इन कीनी श्याम रंग लपटाने गुंडमलारगानेन तो कहे में नहीं मेरे । बारही बार कहि हटकि राखति निकसि गये हरि संग नहि रहे घेरे।ज्यों व्याध फंदते छूटत खग उडि चलत तहां फिरि तकत नहिंबासमाने । जाइ वन लुमनि में दुरत योंही गये श्याम तनु रूप वन में समानें ॥ पालि इतने किए आज उनके भए मोल करिलए अब श्याम उनको । सूर यह कौति ब्रजनारि ब्याकुल भई प्रेममें नैन लैगये पछितात मनको ॥ नतश्री ॥ नैना हाथ न मेरे आली इत है गये ठगोरी लावत सुंदर कमल नैन वनमाली ॥ वे पाछे ए आगे धाये मैं बरजत वरजत पचिहारी । मेरे तन कै फेरिन चितए आतुरता वह कही कहारी॥ जैसे बरत भवन तजि भंजिए तैसेहि गये फेरि नहिं हेरचोसूरश्याम रस रसे रसीले पय पानीको करै निवेरचो।।रामकली ॥