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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३२

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दशमस्कन्ध-१०


इक घरते निकरी इक निकसत इक भई बेहाल। इक नाहीं भवननि ते निकरी तिनपै आए परम कृपाल॥ यह महिमा ओई पै जानै कवि सों कहा वरणि यह जाइ। सूरश्याम रस रास रीति सुख बिन देखे आवै क्यों गाइ॥९१॥ मलार ॥ रासरस रीति नहिं वरणि आवै। कहाँ वैसी बुद्धि कहां वह मन लहौं कहां इह चित्त जिय भ्रम भुलावै॥ जो कहौं कौन मानै निगम अगम जो कृपा बिन नहीं या रसहि पावै। भावसों भजै बिन भाव में ए नहीं भावही माहँ भाव यह बसावै॥ यह निज मंत्र यह ज्ञान यह ध्यान है दरश दंपति भजन सार गाऊं। इहै मांग्यो चार बार प्रभु सूरके नैन द्वौ रहैं नरदेह पाऊं॥९२॥ केदारो ॥ मुरली ध्वनि करी बलवीर। शरदनिशिको इंदुपूरण देखि यमुनानीर॥ सुनत सो ध्वनि भई व्याकुल सकल घोषकुमारि। अंग अभरण उलटे साजी रही कछु न सँभारि॥ गई सोरहसहस हरिषै छांडि सुत पति नेह। एक राखी एकको पति सो गई तजि निजदेह॥ दियो तिन तिय आन मधुरै चितै लोचन कोर। सूर भजि गोविंद यो जग मोह बंधन तोर॥९३॥ सारंग ॥ सुनो शुक कह्यो परीक्षित राव। गोपिन परम कंत हरि जान्यो लख्यो न ब्रह्मप्रभाव॥ गुणमें ध्यान कीन्ह निर्गुण पद पायो तिन केहि भाइ। मेरे जिय संदेह बढ्यो यह मुनिवर देहु नशाइ॥ शुक कह्यो कुटिलभाव मन राखे मुक्तभयो शिशुपाल। गोपी हरिकी प्रिया मुक्ति लहैं कहा अचरज भूपाल॥ काम क्रोध में नेह सुहृदता काहू विधि कहै कोई। धरैं ध्यान हरिको जे दृढकरि सूर सो हरिसों होई॥९४॥ गुंडमलार ॥ सुनत वन वेनु ध्वनि चलीं नारी। लोक लज्जा निदरि भवन तजि सुंदरी मिलीं वनजाइके वनविहारी॥ दरशके लहत मनहरष सबको भयो परसकी साध अति करति भारी। इहै मन वच कर्म तज्यो सुत पति धर्म मेटि भव भर्म सहिलाज गारी॥ भजैं जेहि भाव जो मिलै हरि ताहि त्यों भेद भेदा नहीं पुरुष नारी। सुरप्रभु श्याम ब्रजबाम आतुरकाम मिलीं वनधाम गिरिराज धारी॥९५॥ सूही बिलावल ॥ देखि श्याम मनहरष बढायो। तैसिय शरद चांदिनी निर्मल तैसोइ रासरंग उपजायो॥ तैसिय कनकवरन सब सुंदरि यह सोभा पर मन ललचायो॥ तैसी हंस सुता पवित्र तट तैसोइ कल्पवृक्ष सुख दायो। करौं मनोरथ पूरण सबके इहि अंतर इक खेद उपायो। सुरश्याम रचि कपट चतुरई युवतिनके मन यह भरमायो॥९६॥ विहागरो ॥ निशि काहे वनको उठि धाई। हँसि हँसि श्याम कहतहै सुंदरि की तुम ब्रजमारगहि भुलाई॥ गई रही दधिवेचन मथुरा तहां आजु अवसेर लगाई। अति भ्रम भयो विपिन क्यों आई मारग वह कहि सबनि बताई॥ जाहु जाहु घर तुरत युवति जन खिझत गुरूजन कहि डरवाई। की गोकुलते गमन कियो तुम इन बातन है नहीं भलाई॥ यह सुनिकै ब्रजबाम कहत भई कहा करत गिरिधर चतुराई। सूरनाम लै लै जन जनके मुरली बारंबार बुलाई॥९७॥ विहागरो ॥ यह जिनि कहाँ घोष कुमारि। हम चतुरई नहीं कीन्हीं तुम चतुर सब ग्वारि॥ कहां हम कहां तुम रही ब्रज कहांक्षमुरली नाद। करतिहौ परिहास हमसों तजौ यह रस वाद॥ बड़ेकी तुम बहू बेटी नामले क्योंजाइ। ऐसेही निशि दौरि आई हमहि दोष लगाइ॥ भली यह तुम करी नाहीं अजहुँ घर फिरि जाहु। सूर प्रभु क्यों निडरि आई नहीं तुम्हरे नाहु॥९८॥ जैतश्री ॥ मात पिता तुम्हरे धौं नाहीं। बारंबार कमलदललोचन यह कहि कहि पछिताहीं॥ उनके लाज नहीं वन तुमको आवन दीन्हीं राति। सब सुंदरी सबै नव योवन निठुर अहिरकी जाति॥ की तुम कहि आई की ऐसेहि कीन्ही कैसी रीति। सूर तुमहिं यह नाहीं बूझी बड़ी करी विपरीति॥९९॥ रामकली ॥ अब तुम