पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३२

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दशमस्कन्ध-१० (३३९) इक घरते निकरी इक निकसत इक भई बेहाल । इक नाही भवननि ते निकरी तिनपै आए परम कृपाल। यह महिमा ओई पै जानै कवि सों कहा वरणि यह जाइ ।सूरश्याम रस रास रीति सुख पिन देखे आवै क्यों गाइ॥९॥मलाए।रासरसरीति नहिं वराणि आवेकहाँ वैसी बुद्धि कहां वह मन लहों कहां इह चित्त जिय भ्रम भुलावै॥जो कहौं कौन मान निगम अगम जो कृपा बिन नहीं या रसहि पावै । भावसों भजे विन भाव में ए नहीं भावही माहँ भाव यह वसावे।यह निज मंत्र यह ज्ञान यह | ध्यान है दरश दंपति भजन सार गाऊं । इहे माग्यो चार बार प्रभु सूरके नैन द्वौ रहें नरदेह पाऊं ।।९२॥फेदारो। मुरली ध्वनि करी बलवीर । शरदनिशिको इंदुपूरण देखि यमुनानीर ।। सुनत सो ध्वनि भई व्याकुल सकल घोपकुमारि । अंग अभरण उलटे साजी रही कछु न सँभारि ॥ गई सोरहसहस हरिपे छांडि सुत पति नेह । एक राखी · एकको पति सो गई तजि निजदेह ॥ दियो तिन तिय आन मधुरै चितै लोचन कोर। सूर भजि गोविंद यो जग मोह बंधन तोर ॥ ९३ ।। सारंग ॥ सुनो शुक कह्यो परीक्षित राव । गोपिन परम कंत हरि जान्यो लख्यो न ब्रह्मप्रभाव ॥ गुणमें ध्यान कीन्ह निर्गुण पद पायो तिन केहि भाइ । मेरे जिय संदेह वन्यो यह मुनिवर देहु नशाइ॥शुक कह्यो कुटिलभाव मन राखे मुक्तभयो शिशुपाल । गोपी हरिकी प्रिया मुक्ति लहें कहा अचरज भूपाल ॥ काम क्रोध में नेह सुहृदता काहू विधि कहै कोई । धरै ध्यान हरिको जे दृढकरि सूर सो हरिसों होई ॥९४ ॥ गुंडमलार ॥ सुनत वन वेनु ध्वनि चली नारी । लोक लज्जा निदरि भवन तजि सुंदरी मिली वनजाइके वनविहारी । दरशके लहत मनहरप सबको भयो परसकी साध अति करति भारी । इहै मन वच कर्म तज्यो सुत पति धर्म मेटि भव भर्म सहिलाज गारी । भर्ने जहि भाव जो मिले हरि ताहि त्यों भेद भेदा नहीं पुरुप नारी । सुरप्रभु श्याम बजवाम आतुरकाम मिलीं वनधाम गिरिराज धारी।।९५॥ मूही विलावल ॥ देखि श्याम मनहरप बढायो। तैसिय शरद चांदिनी निर्मल तैसोइरासरंग उपजायो। तैसिय कनकवरन सव सुंदरि यह सोभा पर मन ललचायो॥ तैसी हंस सुता पवित्र तट तैसोइ कल्पवृक्ष सुख दायो । करौं मनोरथ पूरण सबके इहि अंतर इक खेद उपायो । सुरश्याम रचि कपट चतुरई युवतिनके मन यह भरमायो ॥ ९६॥ विहागरा॥ निशि काहे वनको उठि धाई । हसि हँसि श्याम कहतहे सुंदरि की तुम बजमारगहि भुलाई ॥ गई रही दधिवेचन मथुरा तहां आजु अवसेर । लगाई। अति भ्रम भयो विपिन क्यों आई मारग वह कहि सवनि बताई ॥ जाहु जाहु घर तुरत युवति जन खिझत गुरूजन कहि डरवाई।की गोकुलते गमन कियो तुम इन वातन है नहीं। भलाई । यह सुनिकै व्रजवाम कहत भई कहा करत गिरिधर चतुराई । सूरनाम लै लै जन जनके मुरली वारंवार बुलाई ।। ९७ ॥ विहागरो ॥ यह जिनि कहाँ घोप कुमारि । हम चतुरई नहीं कीन्हीं तुम चतुर सब ग्वारि ॥ कहां हम कहां तुम रही वन कहां सुरली नाद । करतिही परिहास हमसों तजी यह रस वाद ।। बड़ेकी तुम वह बेटी नामले क्योंजाइ । ऐसेही निशि दौरि आई हमहि दोप लगाइ ॥ भली यह तुम करी नाही अजहुँ घर फिरि जाहु । सूर प्रभु क्यों निडरि आई नहीं तुम्हरे नाहु ॥ ९८ ॥ नेतश्री ॥ मात पिता तुम्हरे धौं नाहीं । वारंवार कमलदललोचन यह कहि कहि पछिताहीं ॥ उनके लाज नहीं वन तुमको आवन दीन्हीं राति । सव सुंदरी सबै नव योवन निठुर अहिरकी जाति ॥ की तुम कहि आई की ऐसेहि कीन्ही । कैसी रीति । सूर तुमहिं यह नाहीं बूझी बड़ी करी विपरीति ॥ ९९ ॥ रामकली ·॥ अब तुम - - -