पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३१

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(३३८) .. सूरसागर। काहु नहिं लजी अति प्रेम धाई ॥ तज्यो कुलधर्म गोधन भवन जन तजे पी रस कृष्ण विन कछु न भावै । सूर प्रभु सो प्रेम सत्य करिकै कियो मन गयो तहां इनको बुलावै ।। ८३ ॥ सारंठ ॥ मुरली मधुर बजायो श्याम । मन हरि लियो भवन नहि. भाव व्याकुल व्रजकी वाम ।। भोजन भूषणकी सुधि नाही तनुकी नहीं सँभार । गृह गुरुलाज सूतसों तोरयो डरी नहीं व्यवहार ॥ करत शृंगार विवस भई सुंदरि अंगनि गई भुलाई । सूरश्याम वन वेणु बजावत चितहित रासरमाई ॥ गुंडमलार ॥ करत शृंगार युवती भुलाही । अंग सुधि नहीं उलटे वसन धारहीं एक एकनि कछु सुरति नाहीं ॥ नैन अंजन अधर अंजहीं हरष सों श्रवण ताटक उलटे सँवारें । सूरप्रभु मुखः ललित वेणुध्वनि वन सुनत चली वेहाल अंचल नधारें ॥८३॥नया हरि मुख सुनत वैन रसाल।। विरह व्याकुल भई वाला चलीं जहँ गोपाल ॥ पयदुहावत. चलीं कोऊ रह्यो धीरज नाहिं । एक दुहनी दूध जावन को शिरावत जाहि ॥ एक उफनतही चली उठि धरयो नहीं उतारि । एक जेवन करत त्याग्यो चढ़े चूल्है दारि॥ एक भोजन. करि संपूरन गई वैसहि त्यागि । सूर प्रभुके पास तुरतहि मन गयो उठि भागि॥८॥रामकली||मन गयो चित्त श्यामसों लाग्यो।नानाविधि जेवन करि । परस्यो पुरुष जेवावत त्याग्यो ॥ इक पय प्यावत चलि तजि बालक छोह नहीं तब कीन्हों ।।। चली धाइ अकुलाइ सकुच तजि बोलि वेतु ध्वनि लीन्हों ॥ इक पति सेवा करत चली उठि व्याकुल तनु सुधि नाहीं । सूर निदार विधिकी मर्यादा निशि वनको सब जाहीं॥८५ ॥ जैतश्री॥ जबाह वन मुरली श्रवण परी। चकृत भई गोपकन्या सब कामधाम विसरी ॥ कुल मयोद वेदकी आज्ञा नेकहु नहीं डरी । श्यामसिंधु सरिता ललनागन जलकी ढरनि ढरी ॥.अँग मर्दन करिवेको लागी उबटन तेल धरी । जो जेहि भांति. चली सो तैसेइ निशि नवकुंज खरीः ॥ सुत पति नेह भवन जन संका लज्जा नहीं करी।सूरदास प्रभु मन हरि लीन्हों नागर नव लहरी८६॥ केदारो ॥ सुनि सुरली शवद ब्रजनारि । करति अंग शृंगार भूली काम गयो तनु मार ॥ चरण सों गहि हार बांध्यो नैन देखति नाहिं ! कंचुकी कटि साजि लहँगा धरति हृदय माहि ॥ चतुरता । हरि चोरि लीन्हीं भई भोरी वाल । सूरप्रभु रति काम मोहन रास रुचि नँदलाल ॥ ८७॥ रामकली : ब्रजयुवतिन मन हरयो कन्हाई । रास रंग रस रुचि मन आन्यो निशि वन नारि बुलाई ॥ तव तनु । गारि बहुत श्रम कीन्हों सो फल पूरण दैन । वेणु नाद रस विवस कराई सुनि ध्वनि कीन्हो गौन ॥ ॥ जाको मन हरि लियो श्याम घन ताहि सँभारै कौन । सरदास ज्यों नारि कंत मिलि करै सुभावे ।। जौन ॥ ८८॥ धनाश्री ॥ चली वन वेणु सुनत जब धाइ। मात पिता बंधव इक त्रासत. जाति कहां अकुलाइ ॥ सकुच नहीं संकाहू नाही रैनि कहां तुम जाति । जननी कहति दुई की. घाली. काहेको इतराति ॥ मानति नहीं और रिस पावति निकसी नातो. तोरि । जैसे जल प्रवाह भादा ॥ को सोको सकै बहोरि ॥ ज्यों केंचुरी भुवंगम त्यागत मात पिता यों त्यागे । सूरश्यामके हाथः । विकानी अलि अंबुज अनुरागे ॥ ८९ ॥ गुंडमलार ॥ सुनत मुरली अलि न धीर धरिकै । चली पत मात अपमान करिकै ॥ लरत निकसी सबै तोर फरिकै । भई आतुर वदन दरश हारक जाहे जो भजै सो ताहि रातै । कोऊ कछ कहै सब निरस वातै ॥ ताविना ताहि कछु नहीं भाव।। और तो जोरि कोटिक दिखावै ॥ प्रीति कथा वह प्रीतिहि जानै । और कार कोटि वात वखान । ज्यों सलिल सिंधु विनु कहूँ न जाई। सर वैसी दशा इनहुँ पाई. ॥९० ॥ सूही विलावल ॥ घर पर ते निकसी व्रजवाला । लेले नाम युवति जन जनके मुरली में सुनि सुनि ततकाला ॥ इक मारग