पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३४

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दशमस्कन्ध १० (३४१) देह चलावत ॥ अटके नैन माधुरी मुसकान अमृत वचन श्रवणनको भावत । इंद्री सबै मनहिके पाछे कहो धर्म कहि कहा बतावत ॥ इनको करी आफ्नो लायक तौ क्यों हम नाही जिय भावत। सुरसैनदै सरवस लूव्यो मुरली लै लै नाम बुलावत॥ ९॥ कान्हरो ॥ भवन नहीं अब जाहिं कन्हाई। सुजन बंधुते भई वाहिरी अब कैसे दे करत बडाई । जो कवहूं वे लेहिं कृपाकार धृग वैधृग हम नारि। तुम विछुरत जीवन धृग राखें कहीं न आए विचारि ॥धृग वह लाज विमुखकी संगति धनि जीवन तुम हेत । धृग माता धृग पिता गेह धृग धृग सुत पतिको चेत ।। हम चाहति मृदु हँसनि माधुरी जाते उपज्यो काम । सूरश्याम अधरन रस सींचहु जरति विरह सब वाम ॥१०॥ कान्हरो ॥ सुनहु श्याम अब करहु चतुरई क्यों तुम वेणु वजाइ बुलाई । विधि मर्याद लोककी लना सबै त्यागि हम धाई आई। अब तुमको ऐसी न बूझिये आश निराश करौं जिनि साई । सोइ कुलीन सोई वडभागिनि जो तुव सन्मुख रहैं सदाई ॥ ते धनि पुरुप नारि धनि तेई पंकज चरण रहैं दृढताई।सूरदास कहि कहा बखानै यह निशि यह अंग सुंदरताई॥११॥रामकली। विनती सुनिये श्यामसुजान । अतिहि मुख अपमान कीन्हों दृढ न इनते आन ॥ अव करौ दुख दूरि इनको भनी तजि अभिमानाविरह द्वंद्व निवारि डारो अधररसदै पान । मनहि मन यह सुखकरत हरि भए कृपानिधानासुर निश्चय भजी मोको नहीं जानति आन।।१२।।विलावलामोहिं विना ए और न जाने विधि मर्याद लोककी लजा तृणहूते घटिमानाइन मोको नीके पहिचान्यो कपट नहीं उरराख्योसाधु साधु पुनि पुनि हरपित लै मनहीं मन यह भाख्यो। पुनि हँसि कह्यो निठुरता धरिकै क्यों त्याग्यो गृहधर्म । सूर श्याम मुख कपट हृदय रति युवतिनके अति भर्म ॥ १३ ॥ गुंडमलार ॥ तजी नँद लाल आत निठुरई गहि रहे कहा पुनि पुनि कहत धर्म हमको । एकही ढंग रहे वचन सब कट कहे वृथा युवतिन दहे मेटि प्रनको ॥ विमुख तुमते रहैं तिनहि हम क्यों गहें तहाँ कह लहैं दुख देहिं भारी । कहा सुत पति कहा मात पित कुल कहा कहा संसार वन वन विहारी॥हमहिं समुझाइ यह कहो मूरख नारि कहो तुम कहाँ नहिं भर्म जान । सुनहु प्रभु सूर तुम भले की वे भले सत्य कार कहाँ हम अवहिं माने।।१४॥ रामकली ॥ तुमहि विमुख धृग धृग नर नारि । हमतो यह जानति तुव महिमा को सुनिए गिरिधारि । सांची प्रीति करी हम तुमसों अंतर्यामी जानो ॥ गृह जनकी | नहिं पीर हमारे वृथा धर्म हमठानो ॥ पाप पुण्य दोऊ परित्यागे अब जो होइ सुहोई । आश निराश सुरके स्वामी ऐसी करै नकोई ॥ १९॥ जैतश्री ॥ आश जिनि तोरहु श्याम हमारी । वैन नाद ध्वनि सुनि उठि धाई प्रगटत नाम मुरारी ॥ क्यों तुम निठुर नाम प्रगटायो काहे विरद भुलाने । दीन आजु हमते कोउ नाहीं जानि श्याम मुसुकाने ॥ अपने भुजदंडन कर गहिए विरह सलिल में भासी । बार बार कुलधर्म वतावत ऐसे तुम अविनासी ।। प्रीति वचन नवका कार राख्यो अंकम भरि बैठावहु । सूरश्याम तुम विनु गति नाहीं युवतिन पार लगावहु॥१६॥नयाचितदै सुनहु अंबुज नैन । कृपणके गथ भयो हमको सरस अमृत वैन ॥ हम गुणी नववाल रिझवति तुम तरुण धनराशि। कैसेहूं सुखदान दीजै विरह दारिद नाशि ॥ करहु यह यश प्रगट त्रिभुवन निठुर कोठी खोलि । कृपा चितवनि भुज उठावहु प्रेमवचननि बोलि ॥ दीनवाणी श्रवण सुनि सुनि द्रए परमं कृपाल । सूर एकहु अँग न काची धन्य धनि ब्रजवाल ॥ १७॥ विहागरो ॥ हरि सुनि दीन वचन रसाल । विरह व्याकुल देखि वाला भरे नैन विसाल ॥ चारु आनन लोरधारा वरणि कापै जाइ। मनहुँ सुधातडाग उछले प्रेम प्रगटि देखाइ ॥ चंद्रमुख परि निडर बैठे सुभग जोर चकोर। पियत