पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३५

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सूरसागर। ..... ....... % 3D मुख भरि भार सुधा शशि गिरत तापर भौर ॥ हरप वाणी कहत पुनि पुनि धन्य धनि । ब्रजवाल । सूरं प्रभु कार कृपा जोझो सदय भए गोपाल ॥ १८॥ विहागरो ।। श्याम हसि बोले: प्रभुता डारि । वारंवार विनय कर जोरत कटिपट गोद पसारि ।। तुम सन्मुख मैं विमुख तुम्हारों में असाध तुम साधाधन्य धन्य कहि कहि युवतिनको आप करत अनुराध ॥ मोको भजी एक चित.. बँकै निदरि लोक कुलकानिासुत पति नेह तोरि तिनुकासों मोही निजकरि जानि।जाके हाथ पेट फल ताको सो फल लह्यो कुमारि। सूर कृपा पूरण सो बोले गिरिगोवर्धन धारि॥१९॥सूही लिलावल|| कहत श्याम यह श्रीमुखबानी । धन्य धन्य दृढ नेम तुम्हारो विन दामन मो हाथ विकानी ॥ निर्दय, वचन कपटके भापे तुम अपने जिय नेक न आनी। भजी निसंक आय तुम मोको गुरुजनकी || संका नहिं मानी।। सिंह रहै जंबुक शरणागत देखी सुनी न अकथ कहानी । सूरझ्याम अंकम भरि लीन्हीं विरह अग्नि झर तुरत बुझानी॥२०॥ मारू ॥ कियो जेहि काज तप घोपनारी। देउँ फल । हौं तुरत लेहु तुम अब वरी हरप चित करहु दुख देहु डारी । रासरस रचौ मिलि संग विलसह । सवै विहसि हरि कह्यो यों निगमबानी । हँसत सुख मुख निरखि वचन अमृत वरपि प्रिया रस भरे । सारंगपानी ॥ ब्रजयुवती चहुँ पास मध्य सुंदर झ्याम राधिका वाम अति छवि विराजै । सूर नव जलद तनु सुभग श्यामलकांति इंद्रवधु पांति विच अधिक छाजै ॥ २१ ॥ नट ॥ हरि मुख। देखि भूले नैन । हृदय हरषित प्रेम गद्द मुख न आवत वैन ॥ काम आतुर भजी गोपी हरिः। मिले तेहि भाइ । प्रेम वश्य कृपालु केशव जानि लेत सुभाइ ॥ परस्पर मिलि हँसत रहसत हरपिः । करत विलास । उमॅगि आनंद सिंधु उछल्यो श्यामके अभिलाष । मिलति इक इक मुजनि भार : भार रास रुचि जिय आनि । तेहि समय सुख श्याम श्यामा सूर क्यों कहै गानि ॥ २२ ॥ विहागरो रास रुचिं जवहि श्याम मन आनी । करहु शृंगार सँवारि सुंदरी हँसत.कहत हरि वानी ॥ जो देखे । अंग उलटे भूपण तव तरुनिन मुसुकानीवार वार पिय देखि देखि मुख पुनि पुनि युवति लजानी।। नवसतसाजि भई सब ठाढी को छवि सकै वखानी ॥ वह छवि निरखि अधीर भई तनु कामनारिः विततानी ॥ कुच भुज परसि करी मनइच्छा कछु तनु तृपा बुझानी । सुनहु सूर रसरास नायका सुंदरि राधा रानी ।। २३॥ सौरट ।। अंचल चंचल श्याम गह्यो । लै गए सुभग पुलिन. यमुनाके : अँग अँग भेष लह्यो । कल्पतरोवर तर वंसीवट राधा रति गृहधाम । तहां रास रस रंग उपायो। सँग सोभति ब्रजवाम ॥ मध्य श्याम घन तडित भामिनी अतिराजत शुभ जोरी। सूरदास प्रभु.. नवल छवीले नवल छवीली गोरी॥२४॥ येडी ॥ जहां श्याम घन रास उपायो। कुमकुम जल सुख वृष्टि रमायो ॥ धरणीरज कपूर मय भारी विविध सुमन छविन्यारी न्यारीयुक्तीज़ार मंडली विराजविच विच कान्ह तरुनि विच भ्राजाअनुपम लीला प्रगट देखायो । गोपिनको कीयो मन भायो। विच श्री श्याम नारि विच गोरी । कनकभ मर्कत खाच धोरी ॥ सोभा सिंधु हिलोर हिलोरी । सूर कहा मति वरणै थोरी ॥ २५ ॥ गुंडमलार ॥ रास मंडल बने श्याम श्यामा । नारि दोहूँ पास गिरिधर बने दुहुँनि विच सहस शशि वीस. द्वादश उपमा ॥ मुकुटकी छवि निरखि कहा उपमा कहौं नैन जानत नहीं देह जाने । सुभग नवमेव ता वीच चपला चमक निरखि नृत्यत मोर हरष मान ॥ करति आनंद पियसंग लक्ष्मी पुंज वढत रसरंग छिन छिनहि योरै । सूर । प्रभु रास रस नागरी मध्य दोउ परस्पर नारि पति मनहि चोरै ॥ २६ ॥ परस्पर श्याम : वनवाम सोहै । शीशश्रीखंड कुंडल जडित मणिःश्रवण निरखि छवि श्याम मन तरुणि महि ॥ creampie