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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४४३

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सूरसागर।


मधुर सुरगान॥ नृत्य करत उघटत नानाविधि सुनि मुनि विसरयो ध्यान। मुरली सुनत भए सब व्याकुल नभ धरनी पाताल॥ सूरश्यामका को न किए वश रचि रसरास रसाल॥६९॥ केदारो ॥ बनावत रासमंडल प्यारो। मुकुटकी लटक झलक कुंडलकी निरतत नंददुलारो॥ उर वनमाल सोहै सुंदर वर गोपिनके सँग गावै। लेत उपर नागर नागरि सँग बिच बिच तान सुनावै॥ बंसीबट तट रास रच्यो है सब गोपिन सुखकारो। सूरदास प्रभु तिहारे मिलनको भक्तन प्राण अधारो॥७०॥ विहागरो ॥ दुलह दुलहिनि श्यामा श्याम। कोककला वितपन्न परस्पर देखत लज्जित काम॥ जा फलको ब्रजनारि कियो व्रत सो फल पूरण पायो। मनकामना भयो परिपूरण सबहित मानि लियो॥ राग रागिनी प्रगट देखायो गाये जो जेहि रूप सप्त सुरनके भेद बतावति नागरि रूप अनूप॥ अतिहि सुघर पियको मन मोह्यो अपवश करति रिझावति। सूरश्याम मोहन मूरतिको बार बार उरलावति॥७१॥ रामकली ॥ श्यामा श्याम रिझावति भारी। मन मन कहति और नहिं मोसी पियको कोऊ प्यारी॥ ध्रुवा छंद धुरपद यश हरिको हरिही गाय सुनावति। आपुन रीझि कंतको रिझवति यह जिय गर्व बढावति॥ नृत्यति उघटति गति संगीत पद सुनत कोकिला लाजति। सूरश्याम नागर अरु नागरि ललना सुलप मंडली राजति॥७२॥ रामकली ॥ रिझवति पियहि बारंबार। निरखि नैन लजात हरिके नहीं सोभापार॥ चलि सुलप गज हंस मोहति कोक कला प्रवीन। हँसि परस्पर तान गावति करति पियहि अधीन॥ सुनत वनमृग होतं व्याकुल रहत चकृत आइ। सूरप्रभु वश किए नागरि महाजाननि राइ ॥७३॥ प्यारी श्याम लई उर लाई। उरज उरसों परस को सुख वरणि कापै जाई॥ कनक छबि तन मलय लेपन निरखि भामिन अंग। नासिका शुभ वास लैलै पुलक झ्याम अनंग॥ देत चुंबन लेत सुखको मानि पूरण भाग। सूर प्रभु वश किए नागरि वदति धन्य सुहाग॥७४॥ विहागरो ॥ रीझे परस्पर वरनारि। कंठ भुज भुज धरे दोऊ सकत नहिं निरवारि॥ गौर श्याम कपोल सुललित अधर अंमृत सार। परस्पर दोउ पियरु प्यारी रीझि लेत उगार॥ प्राण इक द्वै देह कीन्हें भक्त प्रीति प्रकास। सूर स्वामी स्वामिनी मिलि करत रंग विलास॥७५॥ गावत श्याम श्यामा रंग। सुघर गति नागरि अलापति सुर धरति पिय संग॥ तान गावति कोकिला मनो नाद अलि मिलि देत। मोर संग चकोर डोलत आप अपने हेत॥ भामिनी अंग जोन्ह मौन जलद श्यामलगात । परस्पर दोउ करत क्रीडा मनहि मनहि सिहात। कुचनि बिच कच परमसोभा निरखि हँसत गोपाल॥ सूर कंचन गिरि विचनि मनों रह्यों है अंधकाल॥७६॥ मोहन मोहनी रस भरे। भौंह मोरनि नैन फेरनि तहाँ ते नहिं टरे॥ अंग निरखि अनंग लज्जित सकै नहिं ठहराइ। एककी कहाचलै शत शत कोटि रहत लजाइ॥ इते पर हस्तकानि गति छबि नृत्य भेद अपार। उडत अंचल प्रगटि कुच दोउ कनकघट रससार॥ दरकि कंचुकि तरकि माला रही धरणी जाइ। सूर प्रभु करि निरखि करुणा तुरत लई उचाइ॥७७॥ जैतश्री ॥ प्रेमसहित माला कर लीन्ही। प्यारी हृदय रहत यह जानी भुवपर नहीं पतीन्ही॥ पीतवसन लै श्रमजल पोंछत पुनिलै कंठ लगाइ। चरणन कर परसतहै अपने कहत अतिहि श्रम पाइ॥ कुच श्रम देखि पवन सुखहीके फूंकि झुरावत अंग। सूरदास प्रभु भौंह निहारत चलत त्रियाके रंग॥ ॥७८॥ भैरव ॥ हाहाहो पिय नृत्य करो। जैसे कार मैं तुमहि रिझाई त्यों मेरो मन तुमहु हरो॥ तुम जैसे श्रम वायु करतहो तैसे मैंहुँ डुलावोंगी। मैं श्रम देखि तुम्हारे अँगको भुजभरि कंठ लगा