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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६१

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सूरसागर।


तेरोई गुणग्राम॥ श्रवण सुनत प्यारी पुलकित भई प्रफुलित तन मन रोम रोम सुखराशि वाम। सूरदास प्रभु गिरिवर धरको चली मिलन गजराज गामिनी झनक रुनुक वनधाम॥२॥ ॥ देवगंधारी ॥ चलौ किन मानिनि कुंज कुटीर। तुब बिन कुँवर कोटि वनितातज सहत मदनकी पीर॥ गद्गद सुर पुलकित विरहानल नैन विलोकत नीर। क्कासि क्कासि वृषभानु नंदिनी बिलपत विपिन अधीर। बंसी विशिख माल व्यालावलि पंचानन पिक कीर। मलयज गरल हुतासन मारुत शाखामृग रिपुचीर॥ हियमें हरषि प्रेम अति आतुर चतुरचलहुपिय तीर। सुनि भयभीतवज्रके पिंजर सूर सुरति रणधीर॥३॥ कल्याण ॥ नवेली सुनिनवल पियनवनिकुंज हैरी। भावते लालसोंभावती केलिकरि भावती भावतो रसिक रसलैरी। त्यागि अभिमान गुणरूप सौभाग रति मानिनी मनुहारि मैनसुख दैरी। एक ब्रजवास आवत जात देखियत आपनी जाति पति पेड़को घेरी। लहित उदारहित पीर करि कीर मति धीर तनु मेटि मन्मथको भैरी। कलाचौंसठि संगीत श्रृंगार रस कोक विधि बंद प्रगट भेदसे सैरी। सुरति सागर साज श्रवत जस रसलाज अंग अनुकूल रतिराज रणजैरी॥ कामशर कनय कुच प्रगट भृंगी चिह्न दागि मेलै कंत आपनो कैरी॥ जासु आलाप सुनि दारुसे पल्लवै पुहुप मधुधार करभार भरनैरी। मुरलिका गान तुबनाम मधुराधुनी सुधा गुण सिंधु नहिं गनतनिज मेरी। हीन जलमीन ज्यों दरश बिन कमल लै प्राण प्रीतम नहीं धीरज धरैरी॥ प्रीतिकी रीति गति होति हैरी हरषि निरखि रति करि चिबुक अशनि ढैरी। अधर मधुलोभ पंथान चितवत चकित कमल गुल्लासदल तल रचैरी॥ अरुण शीतल मृदुपातदल सरि करत सेज चढि दल मही चरण के बैरी। तुब कामकेलि कमनीय कामिनि बृंद चंद चकोर चातक स्वाति तैरी॥ सूर सुनि श्रवणतजि भवन करि गवन मन रवन तनु तबहि कहँ सगति गैरी॥४॥ कान्हरो ॥ मनो गिरिवरते आवति गंगा। राजति अति रमणीक राधिका यहि बिधि अधिक अनूपम अंगा॥ गौर गात दुति विमल बारि विधि कटि तट त्रिबली तरल तरंगा। रोम राजि मनो यमुन मिली अध भवँर परत मानो भुवभंगा॥ भुजबल पुलिन पास मिलि बैठे चारुचक्कवै उरुज उतंगा। मनो मुख मृदुल पाणि पंकरुह गुरुगति मनहु मराल बिहंगा॥ मणि गण भूषण रुचिर तीरवर मध्यधार मोतिन मै मंगा। सूरदास मनो चली सुरसरी श्रीगोपाल सागर सुख संगा॥ ॥५॥ सूही ॥ नाहिंन नैन लगे निशि यहि डर। जबते जाइ कह्यो हँसि हरिसों समर सोच उनके जिय धर धर॥ भौंह कमान तिलक भलुकाकरि रुचि सुदेश श्रीमंत सुरँग सर। चलय ताटंक कच नख नेजा दामिनि से चमकत रद असि वर। गज उरोज वरवाजि विलोचन बंकट विशद विसाल मनोहर॥ लाल ढाल अंचल चंचल गति चमर चिकुर राजत ता ऊपर। अंग अंग सज सुभट सहायक बने विविध भूषण बानेवर॥ कामिनि आजुहि आनि रहैगी काम कटक लै कुंज झंडातर। चरन रुनित नूपुर रणतूरा सुनत श्रवण कांपहि गे थर थर॥ तब जानवी किसोर जोर रुपि रहौ जीति करि खेत सबै पर। ऐंचि करौ जो कहौ किसोरी वै जो भीत ह्वै रहे बैठि घर॥ यहै मतो मुख मुख जोरहौ तही करहु पार लै पकरि पियहि कर। सहचरि चतुरातुर लै आई बाँह बोलदैकरि कहत वह छर। रोष सुरत नन मिली अंकम भरि लैलटकी दैदंत पियाधर॥ जुरत सुरत संग्राम मच्यो छबि छूटि छूटि कच टूटि हार लर। अति सनेह दुहुँ बिसरि देह भिरि मैन मल्ल मुरझाई गिरिधर॥ विविध विलास कोश वश राधा नारिनंदनंदन वर। निगमन नेति कह्यो निर्गुण सों कह गुणाधि वरणिहै सूर नर॥६॥ टोडी ॥ फूलनको महल