पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६०

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दशमस्कन्ध-१० (३६७) अंग छवि धन्य श्याम अनुरागिनि ॥ और त्रिया नख शिख शृंगार सजि तेरे सहज न पूरै । रति रंभा उरवसी रमासी तोहिं निरखि मन झुरै ।। ए सब कंत सुहागिनि नाही तूहै कंतहि प्यारी। सुर धन्य तेरी सुंदरता तोसी और न नारी ॥ ९५ ॥ सहज रूपकी राशि नागरी भूपण अधिक विराजे । मुख सौरभ समिलित सुधानिधि कनकलता पर छाजै ॥ वदनार्विद धार मिलि सोभित धूमिल नील अगाध । मनहुँ बाल रवि रस समीर संकित तिमिर कूट के आध । माणिक मध्य पास चहुँ मोती पंगति झलक सिंदूर । रेग्यो जनु तम तट तारागण ऊगत घेरयो सूर ॥ की मन्मथरथ चक्र की तरिवन रवि खरचितसे साजाश्रवण कूपकी रहट पटिका राजत सुभग समाज॥ नाशानथ मुक्ता विम्वाधर प्रतिबिंबित असमूच ।वींध्यो कनक पासि शुक सुंदर करि कवीज गहि चूंच॥ कहँ लगि कहीं भूपणन भूपित अंग अंगके रूपसरसकल सोभा श्रीपतिके राजिवन न अनूप ॥९६ ॥ कान्हरो ॥ विराजत राधा रूप निधान । सुंदरताको पुंज प्रगटही को पटतर त्रिय आनसिंदुर शीश मांग मुक्तावलि कचक बनी अवि नान । मनहुँ चंद्र मुख कोपि हन्यो रिपु राहु विपम बलवान । तरल तिलक ताटक गंडपर झलकत कल विय कान । मानहु शशि सहायकरिवेको रण विरचे द्वै भान ॥दीरयनैन नासिका वेसरि अरुण अधर छविवान । खंजन शुक नहिं विंध समितको लजित भए अजान को कहि सके उरोजन की छवि कंचन मेरु लजान । श्रीफल सकुचि रहे दुरिकानन सिखरहिवो विहरान ॥ रोमावाले त्रिवली छवि छाजत जनु कीन्ही यह ठान । कृप कटि सवल डंड बंधन मनों विधि दीन्हो बंधान ॥ अंग अंग आभूपण की छवि कापै होइ बखान । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि विलसहु श्याम सुजान ॥ ९७॥ सारंग ॥ राजत तेरे वदन शशीरी। किरानि कटाक्षवाण वर सांधे भौंह कलंक कमान कसीरी॥पीन पयोधर सघन उन्नत अति तापर रोमावली लसीरी। चक्रवाक खग चुंच पुटीते मनु सैवल मंजीर खसीरी॥ ज्यों नाभी सर एक नाल नव कनक कमल विवि रहे वसीरी । सूरज श्रीगोपाल पियारी मेरी अध तम धरा धसीरी॥९८गूनरी|सुनि राधे तेरे अंगन ऊपर संदरता नवची लोक चतुर्दशनीरस लागत तू रसरास रची ॥ नखशिख विशिप कुसुमकी सेना को तुम अवधि रची । सहज माधुरी रोमन वर्पत रतिरणकीचमची ॥ तोसी नारि श्याम से नायक विधि वेकाज पची । सूर सुमेरु कूटकी सरवर क्यों पूजे धुंघची।।९९॥नयाराधे देखि तेरो रूपापठईहौं हरि सकि मनु दल सज्यो मनसिज भूप ॥ चाल गज शृंखला नूपुर नीवि नव रुचि ढाल । किंकिनी घंटा घोप माधो भये भै वेहाल ॥ कंचुकी भूपण कवच सजि अति कुच कसे रणवीर । अंचलध्वजा अवलोकि नाहीं धरत पियमन धीर ॥ भौहें चाप चढाइ कीन्हो तिलक शर संधान । नैनकी तकि देखि गिरिधर तज्योहै मदमान॥ चमर चिकुर सुदेश बूंघट छत्र सोभित छांह । ज्यों कह्यो त्योंही मिलाऊं दै दयालहि वाहँ ।। राधिका अति चतुर सुंदरि सुनि सुवचन विलास । सूर रुचि मनसा जनाई प्रगटि मुख मृदुहास ॥ ॥१९००॥ कल्याण | आज अंजन दियो राधिका नैनको । मीन गणहीन मृगलजित खंजन चकित अधिक चंचल सरस श्याम सुखदैनकोलसति दाडिम दशन भोह मन्मथ फंद स्वल्पलट लटाक रहीरहत नहिं चैनकोकसनि कंचुकि बंद उर मुकुतमाल मुख निरखि उडराज तजि गयो सुर ऐनको। रुनित नूपुर चरण क्षुद्रकटि घंटिका कनक तनु गौर छवि उँमगि उपरेनको । सूर सुनि सुन उठि, नवल गिरिधर सेज चलीहै गजगति मनो मदनगढ लैनको ॥ १ ॥ टोडी ॥ रसिक शिरमौर. ढौरि लगावत गावत राधा राधा नाम । कुंजभवन बैठे मनमोहन अलिगोहन सोहन बोलतं मुख