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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४६०

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दशमस्कन्ध-१०


अंग छबि धन्य श्याम अनुरागिनि॥ और त्रिया नख शिख श्रृंगार सजि तेरे सहज न पूरै। रति रंभा उरवसी रमासी तोहिं निरखि मन झुरै॥ ए सब कंत सुहागिनि नाही तूहै कंतहि प्यारी। सुर धन्य तेरी सुंदरता तोसीं और न नारी॥९५॥ सहज रूपकी राशि नागरी भूषण अधिक विराजै। मुख सौरभ संमिलित सुधानिधि कनकलता पर छाजै॥ बदनार्बिंद धार मिलि सोभित धूमिल नील अगाध। मनहुँ बाल रवि रस समीर संकित तिमिर कूट ह्वै आध॥ माणिक मध्य पास चहुँ मोती पंगति झलक सिंदूर। रेंग्यो जनु तम तट तारागण ऊगत घेरयो सूर॥ की मन्मथरथ चक्र की तरिवन रबि खरचितसे साज। श्रवण कूषकी रहट घंटिका राजत सुभग समाज॥ नाशानथ मुक्ता बिम्बाधर प्रतिबिंबित असमूच। वींध्यो कनक पासि शुक सुंदर करि कबीजगहि चूंच॥ कहँ लगि कहीं भूषणन भषित अंग अंगके रूप। सूर सकल सोभा श्रीपतिके राजिवनै न अनूप॥९६॥ कान्हरो ॥ विराजत राधा रूप निधान। सुंदरताको पुंज प्रगटही को पटतर त्रिय आन॥ सिंदुर शीश मांग मुक्तावलि कचक बनी अवि नान। मनहुँ चंद्र मुख कोषिहन्यो रिपु राहु विषम बलवान। तरल तिलक ताटंक गंडपर झलकत कल विय कान। मानहु शशि सहायकरिबेको रण विरचे द्वै भान ॥ दीरघनैन नासिका बेसरि अरुण अधर छबिवान। खंजन शुक नहिं बिंब समितको लज्जित भए अजान॥ को कहि सके उरोजन की छबि कंचन मेरु लजान। श्रीफल सकुचि रहे दुरिकानन सिखरहिवो बिहरान॥ रोमावलि त्रिवली छबि छाजत जनु कीन्ही यह ठान। कृष कटि सबल डंड बंधन मनों विधि दीन्हो बंधान॥ अंग अंग आभूषण की छबि काषै होइ बखान। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि विलसहु श्याम सुजान॥९७॥ सारंग ॥ राजत तेरे बदन शशीरी। किरानि कटाक्षबाण बर सांधे भौंह कलंक कमान कसीरी॥ पीन पयोधर सघन उन्नत अति तापर रोमावली लसीरी। चक्रवाक खग चुंच पुटीते मनु सैवल मंजीर खसीरी॥ ज्यों नाभी सर एक नाल नव कनक कमल विवि रहे वसीरी। सूरज श्रीगोपाल पियारी मेरी अधतम धरा धसीरी॥९८॥ गूजरी ॥ सुनि राधे तेरे अंगन ऊपर सुंदरता नवची। लोक चतुर्दशनीरस लागत तू रसरास रची॥ नखशिख विशिष कुसुमकी सेना को तुम अवधि रची। सहज माधुरी रोमन बर्षत रतिरणकीचमची॥ तोसी नारि श्याम से नायक विधि बेकाज पची। सूर सुमेरु कूटकी सरवर क्यों पूजै घुंघची॥९९॥ नट ॥ राधे देखि तेरो रूप। पठईहौं हरि संकि मनु दल सज्यो मनसिज भूष॥ चाल गज श्रृंखला नूपुर नीवि नव रुचि ढाल। किंकिनी घंटा घोष माधो भये भै बेहाल॥ कंचुकी भूषण कवच सजि अति कुच कसे रणवीर। अंचलध्वजा अवलोकि नाहीं धरत पियमन धीर॥ भौहैं चाप चढाइ कीन्हो तिलक शर संधान। नैनकी तकि देखि गिरिधर तज्योहै मदमान॥ चमर चिकुर सुदेश घूंघट छत्र सोभित छांह। ज्यों कह्यो त्योंही मिलाऊं दै दयालुहि वाहँ॥ राधिका अति चतुर सुंदरि सुनि सुवचन विलास। सूर रुचि मनसा जनाई प्रगटि मुख मृदुहास॥ ॥१९००॥ कल्याण ॥ आजु अंजन दियो राधिका नैनको। मीन गणहीन मृगलजित खंजन चकित अधिक चंचल सरस श्याम सुखदैनको॥ लसति दाडिम दशन भौंह मन्मथ फंद स्वल्पलट लटकि रही रहत नहिं चैनको। कसनि कंचुकि बंद उर मुकुतमाल मुख निरखि उडराज तजि गयो सुर ऐनको॥ रुनित नूपुर चरण क्षुद्रकटि घंटिका कनक तनु गौर छबि उँमगि उपरैनको। सूर सुनि सुन उठि नवल गिरिधर सेज चलीहै गजगति मनो मदनगढ लैनको॥१॥ टोडी ॥ रसिक शिरमौर ढौरि लगावत गावत राधा राधा नाम। कुंजभवन बैठे मनमोहन अलिगोहन सोहन बोलत भुख