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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७३

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सूरसागर।


आगे तें अब जुटरै॥ यह छबि देखि सनाथ भई मैं अब ताहीपर जाइ ढरैं। सुरश्याम रिस देखि चले डरि कहौ सखी अब ह्यांन फिरौ॥१७॥ विहागरो ॥ श्याम गए त्रिय मान कियो। देखो मोहिं दोष तुम देती उन ऐसे मन चोरिलियो॥ जाहु सदन तुमहूं सब अपने मैं बैठी हौं धाम। जानदेहु अब ह्यां जनि आवै ऐसेन को कहा काम॥ अनतहि बसत अनतही डोलत आवत किरिन प्रकाश। सुनहु सूर पुनितौ कहि आवै तनगि गए तापास॥१८॥ अथ राधांजूको मान ॥ बिलावल ॥ यह कहिकै त्रिय धाम गई। रिसनिभरी नख शिख लौं प्यारी जोबन गर्व मई॥ सखी चली गृह देखि दशा यह हठ करि बैठी जाइ। बोलत नहीं मानकरि हरिसों हरि अंतर रहे आइ॥ यहि अंतर युवती सबआई जहां श्याम घरद्वारे। प्रिया मान करि बैठि रही है रिस करि क्रोध तुम्हारे॥ तुम आवत अतिही झहरानी कहा करी चतुराई।सुनत सूर ए बात चकित पिय अतिहि गए मुरझाई॥॥१९॥ विहागरो ॥ बहुरि नागरी मान कियो। लोचनं भरि भरि ढारि दिए दोउ अतितनु विरह हियो॥ देखतही देखत भए व्याकुल त्रिय कारण अकुलाने। वैगुन करत होत अब काचे कहियत परम सयाने॥ यह सुनिकै दूती हरि पठई देखि जाय अनुमान। सुरश्याम यह कहतहि पठई तुरत तजाहि जेहि मान॥२०॥ केदारो ॥ दूती दुई श्याम पठाइ। और मुंख कछु बातन आवै तहां बैठी जाइ॥ प्रिया मन परवाह नाहीं कोटि आवै जाहिं। सौति शाल सलाइ वैठी डुलति इत उत नाहि॥ भीति बिन कह चित्र रेखै रही दूती हेरि। सूरप्रभु आतुर पठाई करत मन अवसेरि॥२१॥ कान्हरो ॥ दूती मन अवसेर करै। श्याम मनावन मोहिं पठाई यह कतहूं चितवैन टरै॥ तब कहि उठी मान अति कीन्हो बहुत करी हरि कहौ करौ। ऐसे बिनवै नहीं जाति हैं अब कबहूँ जनि उनहिं ठरौ॥ मैं आवति यमुनातट ते ब्रज सखी एक यह बात कही। सुनहु सूर मै रहिने सकी गृह कहा श्यामकी प्रकृति सही॥२२॥ विहागरो ॥ अब द्वारेते टरत न श्याम। अब पर घर की सौंह करत हैं भूलिकरौ नहिं ऐसे काम॥ अब तू मान तजै जिनि उनसों इहै कहन आई तेरे धाम। अब समुझी औरौं समुझ्यो वै हम जब कहैं करैं तब ताम॥ अब मोको यह जानि परी है काहूके न बसे कहुँ याम। सूरदास दूती की वाणी सुनति धरति मनही मन वाम॥२३॥ सूही ॥ जब दूती यह वचन कह्यो। तब जाने हरि द्वारे ठंढि उर उमँग्यो रिस नहीं रह्यो। काहेको हरिद्वार खरेहैं किन राखे कहि जीभगरै। मौन गहें मैंही कहि आवौं तू काहेको रिसनिजरै॥ चतुर दूंतिका जानिलई जिय अब बोली गयो मान सबै। सूरश्यामषै आतुर आई कहत आनकी आन फबै॥२४॥ केदारो ॥ काहि मनाऊं श्यामलाल बाल जोरैं नहिं डीठि। मुखहूंजो बोलै तौ मनहीकी लहिये ऐसी तिहारी अहीठि॥ अपनीसी बहुत कही सुनि सुनि उन सबै सही वारूकी बूंद ताको कहाकरै बसीठि। सूरदासके पिय प्यारी आपुहीं जाइ मनाय लीजै जैसी बयारि वहै तैसी ओढिए जू पीठि॥२५॥ ललन तुम्हारी प्यारी आजु मनायो नमानति। बूझि न परति जानि का बैठी कियोजु इत रिस तुमहीलै कोटि अवगुण गनति॥ भरि भरि अँखियन नीर लेति पैढारति नाहीं अतिरिस कँपति अधर फरकि करि भ्रुकुटी तानति। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि आपुन चलिएतौ भली वाँनति॥२६॥ पूरवी ॥ हौं कैसकै ल्याऊँ जो मरम पाऊँ श्याम वाकी मान मानो गढ वै भयो। तनु कंचन गिरि प्रगट कियो तामें बसन कोटि रच्यो अंचल ड्योढी ओट दियो॥ वचन पौरिआबोलनखोलै मुख पौरि मूंदि रहयो॥ मोहन भौंह कमान नैना रिसके बान ताते जाइ न निकट गयो॥ श्याम दाम दण्ड भेद सबै मैं करि देख्यो सूरदास प्रभु चतुर कहावत