पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७३

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(३८०) सुरसागर। आगे तें अब जुटरें । यह छवि देखि सनाथ भई मैं अब ताहीपर जाइ दरें । सुरश्याम रिस देखि चले डरि कहाँ सखी अब ह्यांन फिरौ॥१७॥विहागरो। श्याम गए चिय मान कियो । देखो मोहिं दोप तुम देती उन ऐसे मन चोरिलियो ॥ जाहु सदन तुमहूं सब अपने मैं बैठी हौं धाम । नानदेहु अब ह्यांजनि आवै ऐसेन को कहा काम ॥ अनतहि वसत अनतही डोलत आवत किरिन प्रकाश सुनहु सूर पुनितौ कहि आवै तनगि गए तापास ॥ १८ ॥ अथ राधांजूको मान ॥ बिलावल यह कह कै त्रिय धाम गई । रिसनिभरी नख शिख लौं प्यारी जोवन गर्व मई ॥ सखी चली गृह देखि दशा यह हठ करि वैठी जाइ। बोलत नहीं मानकरि हरिसों हरि अंतर रहे आइ ॥ यहि अंतर युवती सबआई जहां श्याम परद्वारे । प्रिया मान करि बैठि रही है रिस करि क्रोध तुम्हारे ।। तुम आवत अतिही झहरानी कहा करी चतुराई।सुनत सूर ए वात चकित पिय अतिहि गए मुरझाई।। | ॥१९॥विहागरोगावहुरि नागरी मान कियो । लोचनं भारभरि ढारिदिए दोउ अतितनु विरह हियो॥ देखतही देखत भए व्याकुल त्रिय कारण अकुलाने । वैगुन करत होत अब काचे कहियत परम सयाने ॥ यह सुनिकै दूती हरि पठई देखि जाय अनुमान । सुरश्याम यह कहतहि पठई तुरत तजाहि जेहि मान ॥२०॥ केदारो ॥ दूती दुई श्याम पठाइ । और मुंख कछु चातन आवै तहां बैठी जाइ॥ प्रिया मन परवाह नाहीं कोटि आवै जाहि । सौतिः शाल सलाइ वैठी डुलति इत उत. नाहि ॥ भीति बिन कह चित्र रेखै रही दूती हेरि । सूरप्रभु आतुर पठाई करत मन अवसेरि ॥ २१॥ कान्हरो ॥ दूती मन अवसेर करै । श्याम मनावन मोहिं पठाई यह कतहूं चितवन टरे । तब कहि उठी मान अति कीन्हो बहुत करी हरि कहौ करौ । ऐसे विनवै नहीं जाति हैं अब कबहूँ जनि उनहिं ठरौ ॥ मैं आवति यमुनातट ते ब्रज सखी एक यह वति कही । सुनहुः सूर मै रहिने सकी गृह कहा श्यामकी प्रकृति-सही ॥२२॥ विहागरो॥ अव द्वारेते टरत न श्याम । अब पर घर की सौंह करत हैं भूलिकरौ नहिं ऐसे काम ॥ अव तू मान तजै जिनि उनसों इहै कहन आई तेरे धाम । अव समुझी औरौं समुझ्यो वै हम जब कह करें तव ताम ॥ अव मोको यह जानि परी है काहूके न वसे कहुँ याम । सूरदास दूती की वाणी सुनति धरति मनही मन वाम ॥२३॥ मूही ॥ जब दूती यह वचन कह्यो । तब जाने हरिद्वारे ठठे उर उमॅग्यो रिस नहीं रह्यो। काहेको हरिद्वार खरेहँ किन राखे कहि जीभगरे । मौन गहें मैंही कहि आवौं तू काहेको रिसंनि जरै ॥ चतुर दूंतिका जानिलई जिय अब वोली गयो मान सबै । सूरझ्यामपै आतुर आई कहत. आनकी आन फ॥२४॥ केदारो॥ काहि मनाऊं श्यामलाल वालं.जोर गहि डीठि। मुखहूंजो बोले तौ मनहीकी लहिये ऐसी तिहारी अहीठि॥ अपनीसी बहुत कही सुनि सुनि उन सबै संही वारू कीबूंद ताको कहाकरै बसीठि । सूरदासके पिय प्यारी आहीं जाइ मनाय लीजै जैसी वयारि वहै तैसी ओढिए जू पीठि ॥ २६ ॥ ललन तुम्हारी प्यारी आजु मनायो नमानति । बूझि न परति 'जानि का बेठीकियोजु इत रिस तुमहील कोटि अवगुण गनतिभिरि भरि अँखियन नीर लोत पैदा रति नाहीं अतिरिस कँपति अधर फरकि करि भ्रुकुटी तानतिः । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि । आपुन चलिएतौ भली वॉनति ना२६॥ पूरवी ॥ हौं कैसकै ल्याऊँ जो मरम पाऊँ श्याम वाकी मान | मानो गढ वै भयो । तनु कंचन गिरि प्रगट कियो तामें बसन कोटि रच्यो अंचल ड्योढी ओट। दियो॥ वचन पौरिआवोलनखोले मुख पौरि मंदि रहयो। मोहन-भौंह कमान नैना रिसके बान ताते जाइ न निकट गयो।। श्याम दाम दण्ड भेद सबै मैं करि देख्यो सूरदास प्रभु चतुर कहावत :