पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७६

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(३८३) दशमस्कन्ध-१० टकहि ग्वारिनि जुरहीरी कहा कहौं हरिसों अवतोसीको मुँहलगाइ वारि फेरि डा तोहिं पियके एक रोम परहीरी । सूरदास प्रमुको कहा कहि वरणौं एती कवहूं काहूकी न सहीरी ॥ १८ ॥ ।। नट। एकतौ लालन लाडनि लडाइ दूजे यौवन वावरी । उनके गरव जिनि भूलि रहैरी हमसों कार लीन्हे सुख अनेक दिन दिन दिन चारि होत अधिक चावरी । मेरो कहो तू मानिरी माई सब त्रियानको इहै सुभावरी। मैं जु कहति करि सूरझ्याम सों हिलि मिलि रहिए उठत वैसको इ है दॉवरी॥ १९॥ कान्हरो ॥ रहिरी मानिनि मान नकीजै । यह जोवन अँजरीको जलहै ज्यों गोपाल माँगें त्यों दीजै ॥ छिनु छिनु घटति वदति नहिं रजनी ज्यों ज्यों कलाचंद्रकी छीजै । पूरव पुण्य सुकृत फल तेरो काहेन रूप नैन भार पीजै ॥ सौंह करत तेरे पाँइनकी ऐसे जिय नि दशौ दिन जीजै । सूर सुजीवनि सुफल जगतको वैरी बांधि विवस कार लीजै ॥ ५० ॥ सुन प्यारी राधिका सुजान । कहिधौं कौन काज सरिहैरी यहि झूठे अभिमान ॥ जिनके चरण रमा नित लोलित सब गुण रूपनिधान । तिनके मुखके वचन मनोहर सो तू करति नकान ॥ परम चतुर सुंदर सुखकारी तोसी त्रिया नआन । कीजै कहा कृपणकी संपति विना भोग विनदान ऐसी व्यथा होत निशि हरिको जिनि हठ करों विहान । नाहिन कढत औरके काढे सूर मदनके वान ॥ ॥५१॥रामकली ॥ आज हठि बैठी मानकिए । महाक्रोध रस अंशतपत मिलि मनु विप विपम पिये। अधमुख रहति विरह व्याकुल सिख मूरि मंत्र नहिं मान । मूक नतजै सुनि जाति ज्यों सुधि आए तनु जाने । एकलीक वसुधा पर काढी नभतन गोदपसारी । जनु वोहित तजिकै परनको दाध ज्यों अवनि निहारी । ज्यों अति दीन सुखी सवही अँग कतहूं शांति नपावै । त्यों विन पियहि त्रिया प्रातहिते एकै वात मनावै ॥ कबहुँक धुकति धरनि श्रम जल भार महा शरदर विसास । इकटक भई चित्र पूतरि ज्योंजीवनकी नाहि आश तव उपचार कियो मैं करकस लै रस पारयोकान । मुरछा जगी नहीं मुख बोली लै बैठी फिरि मान ॥ हौंतो थकी कति बहु जतननि जीकी व्यथा नपाई । बूझहु लाल नवल नागर तुम ए कैसे न वताई ॥ शिव आकार दिखायो कछु इक भाव दोष रस नाहीं । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि लै मेली पगछाहीं ॥ १२ ॥ देवगंधार ॥ प्रिया पिय नाहिं मनायो माने। श्रीमुख वचन मधुर मृदुवाणी मादक कठिन कुलिशहूते जाने । सोभित सहित सुगंध श्याम कच कलकपोल अरुझाने । मनहु विध्वंसज ग्रस्यो कलानिधि तजत नहीं विनदाने । वालभाव अनुसरति भरति हग अग्र अंशुकन आन। जनु खंजरीट युगल जठरातुर लेत सुभष अकुलाने । गोरेगात उससतजो असितपट और प्रगट पहिचाने। नैन निकट ताटंककी सोभा मंडल कविन वखाने । मानो मन्मथ फंद त्रासते फिरत कुरंग सकानै ॥ नाशापुटनि सकोचति मोचति विकट भृकुटि धनु ताने । जनु शुक निकट निपट शरसाचे पटपद सुभट पराने ॥ जनु खद्योत चमक चलि सकतिनिशितिमिर हिराने । यह सुनिकै अकुलाइ चले हरि कृत अपराध क्षमाने ॥ सूरदास प्रभु मिले परस्पर मानिनि मिलि मुसकाने ॥५३॥ धनाश्री ।। मानि मनायो मोहनसिकुच समेति चली उठि आतुर वनकी गैलगही ॥ विधिमुख निरखि विसुख करि लोचन पुनि विधुवदन चही। दरशत परसत रूप आज निज भूमिनख लेखिकही। पुहुप सुरंग सारंग रिपु ओट देखी | तब चतुर लही ॥ पानि सुपरसत शीशपरस्पर मुसकाने तवही ॥ तृण तोरयो गुनजात जितेगुन |