पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३८६) सूरसागर। सखी बढी निरंतर प्रीति । तू तन मन धन श्यामके तैं हरि पाए जीति ।। मदन मोहन तू वशः करै । अति प्रवीन नंदलाल । सूरदास गाव सदा कीरति विशद विसाल ॥६५॥ नट ॥ राधा संग ललि ता लिए । श्याम आतुर जानि बाला गवन आतुर किए।किंकिणी धनि श्रवण सुनि हरि अतिहि पुलकित हिए।नारि आवत जानि गिरिधर नहीं धीरजजिए।।चले आतुर धाइआगे संग सहचारी विए। सूर प्रभु रतिरंग राचे देखि रीझी त्रिये ॥ ६६ ॥ पिय छवि निरखत नागरी अंगदशा मुलानी। अंतर्गत आनंदभरी ललिता हरपानी ॥ सहचरि सों कहि सुमनलै हरि भेट भराए । अति अधीन । पिय ढ रहे वशपरे डराए ॥ मारग सुमन विछावहीं पग निरखि निहारे । फूले फूले मग धरे कलि आं चुनिडारे । ऐसे वश पिय वामके सुख सूरज जाने।जो जेहि भाव निहारि भने तेहि तैसोइ माने ॥६७ ॥ पूरवी ॥ पीछे ललिता आगे श्यामा प्यारी ता आगे पिय मारग फूल विछावत जातः । कठिन कठिन कली वीनि करत न्यारी प्यारीके चरण कोमल जानि सकुचअति गडिवेहि डरात ॥ दीरपलता अपने कर निरुवारत ऊंचे लै डारत द्रुम बेली पात । सूरदास प्रभुकी ऐसी अधीं नता देखत मेरे नैन सिरात ॥६८॥ कान्हरो ॥ बडे बडे वार ऍडिन परसत श्यामा पीछे अपने अंचलमें लिए। वेणी गूंथन मिस फूल सुगंध फेट भरे डोलत बोलत नाहिंन सकुच हिए ॥ अंरु. कुसुमीसारी में अलक झलक गोरे तनु मनो अहि कुल चंदन वंदन सों पूजा किए । सूरदास प्रभु त्रिय. मिलि नैन प्राण सुख भयो चितए कहाखिअनि अनकनि दिए ॥६९ ॥ रामकली ॥ वरन वरन वन फूलि रह्यो । हर्षितकै वृषभानु नंदिनी सँग. सव सखिन कह्यो । कुसुमकली देखत रुचि उपजत यह कहि तिनहि सुनावति । आपुन चुनति गोदलै धारति युवतिन कहति चुनावति ।। हँसत परस्पर दैदै तारी झ्याम लिए करवाही। सूरदास प्रभु काम आतुरे और ध्यान चित नाहीं ॥ ७० ॥ डोलत वांकी कुंज गली । ब्रजवनिता मृगसावक नैनी बीनति कुसुमकली ॥ कमल बदन पर विथुरि रहीं लट कुंचित मनहुँ, अली । अधर विव नासिका मनोहर दामिनि दशन छली ॥ नाभि परसलौं रस रोमावलि कुच युग बीच चली।मनहुँ विवरते उरग रिंग्यो तकि गिरिके संधिथली।पृथु नितंब कटि छान. हँसगति ।। जघन सघन कदलीचरण महावर नूपुर मणि मै पाजत भाँति भलीओटभए अवलोकि परस्पर बोलत अली अली । सूर सुमोहन लाल रसिक सँग वन घन मांझ रली ॥७१ ॥ राग रवा ॥ ॥ . सखियन सँग राधे कुंवरि बीनति कुसुमकलिआं । एक वयक्रम एकहि वानक रूप गुणकी सीव मनभावत सुंदर श्याम लालके कर सोहति रंगीली डलिआँ ॥ एक अनूपम माल बनावति एक परस्पर वेनी गूंथति भ्राजति कुंज महलिआँ । सूरदास पभु सँग मिलि कौतुक दे खत हरष हरष प्यारी अंकम भरिआं ॥ ७२ ॥ कल्याण ॥ लैगए धाम वन श्याम प्यारी । रहे. पलटाइ दोउ भुजनि लपटाइ कै कह्यो पिय वचन हौ निठुर नारी।विहसि वृपभानु तनया कहति हम निठुर तुम सुहृद बात वह जिनि चलावो । निठुर अरु सुद्वंद्व सो मनहि मन जानिहै, कहा वह कथाकी सुरति धावो । परस्पर हँसे दोर रसे रति रंगमें करत मनकाम फल पुरुष नारी । सूर प्रभु कोक गुण में निपुणहैं: वडे कामवल तोरि रस रह्यो भारी ॥ ७३ ॥ सूहीविलावल ॥ गिरिधर नारि अवल अति कीन्ही । सबल भुजाधरि अंकम भरि भार चापि कठिन कुच ऊपर लीन्हीं॥ कोक अनागत क्रीडा पर रुचि दूरि करत तनुसारी । कमल करनि कुच गहत लहत पुटदेखो। वह छवि न्यारी ॥ बार वार ललचात साध करि सकुचात पुनि पुनि बाला । सूरश्याम यह काम ,