सखी बढी निरंतर प्रीति। तू तन मन धन श्यामके तैं हरि पाए जीति॥ मदन मोहन तू वश करै अति प्रवीन नँदलाल। सूरदास गावै सदा कीरति विशद विसाल॥६५॥ नट ॥ राधा संग ललिता लिए। श्याम आतुर जानि बाला गवन आतुर किए॥ किंकिणी धनि श्रवण सुनि हरि अतिहि
पुलकित हिए। नारि आवत जानि गिरिधर नहीं धीरजजिए॥ चले आतुर धाइ आगे संग सहचरि विए। सूर प्रभु रतिरंग राचे देखि रीझी त्रिये॥६६॥ पिय छबि निरखत नागरी अँगदशा भुलानी। अंतर्गत आनँदभरी ललिता हरषानी॥ सहचरि सों कहि सुमनलै हरि भेट भराए। अति अधीन पिय ह्वै रहे वशपरे डराए॥ मारग सुमन बिछावहीं पग निरखि निहारे। फूले फूले मग धरे कलिआं चुनिडारे। ऐसे वश पिय वामके सुख सूरज जाने। जो जेहि भाव निहारि भजै तेहि तैसोइ माने॥६७॥ पूरवी ॥ पीछे ललिता आगे श्यामा प्यारी ता आगे पिय मारग फूल बिछावत जात कठिन कठिन कली बीनि करत न्यारी प्यारीके चरण कोमल जानि सकुचअति गडिवेहि डरात॥ दीरघलता अपने कर निरुवारत ऊंचे लै डारत द्रुम बेली पात। सूरदास प्रभुकी ऐसी अधीनता देखत मेरे नैन सिरात॥६८॥ कान्हरो ॥ बडे बडे वार एँडिन परसत श्यामा पीछे अपने अंचलमें लिए। वेणी गूँथन मिस फूल सुगंध फेट भरे डोलत बोलत नाहिंन सकुच हिए॥ अरु कुसुमीसारी में अलक झलक गोरे तनु मनो अहि कुल चंदन वंदन सों पूजा किए। सूरदास प्रभु त्रिय मिलि नैन प्राण सुख भयो चितए करुखिअनि अनकनि दिए॥६९॥ रामकली ॥ वरन वरन वन फूलि रह्यो। हर्षितह्वै वृषभानु नंदिनी सँग सब सखिन कह्यो॥ कुसुमकली देखत रुचि उपजत यह कहि तिनहि सुनावति। आपुन चुनति गोदलै धारति युवतिन कहति चुनावति॥ हँसत परस्पर दैदै तारी श्याम लिए करवाँही। सूरदास प्रभु काम आतुरे और ध्यान चित नाहीं॥७०॥ डोलत वांकी कुंज गली। ब्रजवनिता मृगसावक नैनी बीनति कुसुमकली॥ कमल बदन पर विथुरि रहीं लट कुंचित मनहुँ अली। अधर बिंब नासिका मनोहर दामिनि दशन छली॥ नाभि परसलौं रस रोमावलि कुच युग बीच चली। मनहुँ विवरते उरग रिंग्यो तकि गिरिके संधिथली॥ पृथु नितंब कटि छान हँसगति जघन सघन कदली। चरण महावर नूपुर मणि मै बाजत भाँति भली॥ ओटभए अवलोकि परस्पर बोलत अली अली। सूर सुमोहन लाल रसिक सँग वन घन मांझरली॥७१॥ राग रवा ॥ सखियन सँग राधे कुँवरि बीनति कुसुमकलिआं। एक वयक्रम एकहि वानक रूप गुणकी सींव मनभावत सुंदर श्याम लालके कर सोहति रँगीली डलिआँ॥ एक अनूपम माल बनावति एक परस्पर वेनी गूंथति भ्राजति कुंज महलिआँ। सूरदास प्रभु सँग मिलि कौतुक देखत हरष हरष प्यारी अंकम भरिआं॥७२॥ कल्याण ॥ लैगए धाम वन श्याम प्यारी। रहे पलटाइ दोउ भुजनि लपटाइ कै कह्यो पिय वचन हौ निठुर नारी। विहँसि वृषभानु तनया कहति हम निठुर तुम सुहृद बात वह जिनि चलावो। निठुर अरु सुद्वंद्व सो मनहि मन जानिहै कहा वह कथाकी सुरति धावो। परस्पर हँसे दोऊ रसे रति रंगमें करत मनकाम फल पुरुष नारी। सूर प्रभु कोक गुण में निपुणहैं। बडे कामबल तोरि रस रह्यो भारी॥७३॥ सूही बिलावल ॥ गिरिधर नारि अबल अति कीन्ही। सबल भुजाधरि अंकम भरि भार चापि कठिन कुच ऊपर लीन्हीं॥ कोक अनागत क्रीडा पर रुचि दूरि करत तनुसारी। कमल करनि कुच गहत लहत षुट देखो वह छबि न्यारी॥ बार बार ललचात साध करि सकुचति पुनि पुनि बाला। सूरश्याम यह काम
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सूरसागर।
