पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४८०

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दशमस्कन्ध-१० (३८७) करो जिनि धनि धनि मदन गोपाला ॥ ७४ ॥ रामकली | सुता दधिपति सों क्रोधभरी । अंमर लेते भई खिझि वालहि सारँग संगलरी । तब श्रीपति अति बुद्धि विचारी मणि ले हाथ धरी । अति चतुर नागरी नागर लै मुख मांझ करी ॥ चाखत चरण शेष चाल आयो उदयाचलहि डरी । सूरदास स्वामी लीला उर अंकम लगि उवरी ॥ ७९ ॥ सकुचि तनु उदधि सुता मुसकानी । रवि सारथी सहोदर तापति अंवर लेत लजानी ॥ सारंग पाणि अदि मगनैनी माणि मुख माँह समानी । चरण चापि महि प्रगट करी पिय शेष शीश सहदानी ।। सूरदास तव कहैं करें अब लाज बहुरि तब यह मति ठानी। भुज अंकम भार चापि कठिन कुच श्याम कंठ लपटानी ॥ ७६ ॥ विलावल ॥ वह छवि अंग निहारत श्याम । कबहुँक चुंबन देत उरोज धरि अति सकुचत तब वाम ॥ सन्मुख नैनन जोरति प्यारी निलज भए पिय ऐसे । हाहा करति चरणकर टेकति कहा करत ढंग नैसे ॥ बहुरि काम रस भरे परस्पर रति विपरीति वढाइ । सूरश्याम रति पति विह्वल करि नागरि रहि मुरझाइ ॥ ७७ ॥ पियप्यारी तनुश्रमित भए । सकुचि उठी नागरि पटलीन्हों श्यामलजाइ गए ॥ सावधान राति अंत भए पिय प्यारी तन नहि हेरत । नागरि कुटिल कटाक्षनि हेरति भृकुटी वंकन फेरत ॥ ऐसे गुण तुम किनहि सिखाए तरुणी काट कसि दीन्हीं । सूरकहति पियसों त्रिय वातें आज तुमहि में चीन्हीं ॥७॥ धनाश्री ॥ हरपि श्याम त्रिय बांह गही।अपने कर सारी अँग साजत यह इक साधकही। सकुचत नारि बदन मुसकानी उतको चितै रही। कोककला कार पूरण दाऊ त्रिभुवन और नहीं। कुंजभवन सँग मिलि दोउ बैठे सोभा एक चही। सूरश्याम श्यामा शिर बेनी अपने करन गृही॥ ॥७९॥ मोहन मोहनी अंग शृंगारतविनी ललित ललित करि गूंथत निरखत सुंदर मांग सँवारतः॥ शीशफल धार पाटी पोंछत फूंदनि सँवा निहारत । वदनविंद जराइकी वेदी तापर वनै सुधारत॥ तरिवन श्रवण नैन दोउ आजति नाशा वेसरि साजत । बीरी मुख भार चिबुक डिठगना निरखि कपोलनि लाजत ॥ नख शिख सजति शृंगार भावसों जावक चरणन सोहत । संरश्याम त्रिय अंग सँवारत निरखि आप मनमोहत ॥ ८०॥ ललित ॥ ऐसेहि सुख सब रैनि विहानी । भोरभए ब्रज धाम चले दोउ मन.मन नारि सिहानी ॥ प्यारी गई वृपभानुपुरा तन श्याम जात नदधाम । सुखमा महल द्वारही अढी उन देखी वह वाम।।प्रात चले बनते ब्रज आए मन मन करत विचार। सुनहु सूर ठठकत सकुचत तागृह गए नंदकुमार॥८॥अथ बहरोखंडित, मुखमा घरमाए ॥ रागदेवगंधार ॥ कितते आएहो नँदलाल । ले भवनमें सब भेद बूझो सुनिहौ वचन रसाल ॥ ऐसी कौन बालजा धोखे तुम आइ द्वारकै झांकी मिटत नहीं चितवनि हित चितकी उह टेव नित नितकी मैं पहिचाने नैनावाँको कबहुँ जम्हात कबहुँ अँग मोरत अटपटात मुखबात न आवै नि कहूं धौं थाकोसरदास प्रभु रसिक शिरोमणि रसिक रसिकई जानि नाम लेहु रहे जाकेट२॥ललितावनतनते आए अति भोर। रातिरहे कहुँ गाँइन घरत आएहौ ज्यों चोर ॥ अंग २ उलटे आभूपण बनहूं में तुम पावतावड़भागी तुमते नहिं कोई कृपा करत जहँ आवत ॥ औचक आइ गए गृह मेरे दुर्लभ दरशन दीन्हों। सूर श्याम निशिही कहुँ जागे पावति अँग अँग चीन्हों८३ ॥ विलावल ॥ लालउनीदे नैना भए । राज रतनारे नैना मानहुँ नलिन नएापीक कपोल ललाट महाउर वंदन वलित खए ॥ जनु तनुजामे सद्य अरुनदल कामके बीज वए । विन गुनहार पयोधर मुद्रा हृदय सुदेशदए।अंजन अधर सुमंत्र लिख्योरति दीक्षालेन गए ।। सूरश्याम विथुरे कच मुखपर नख नाराच हए ॥ ता ऊपर आनंद