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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२०

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दशमस्कन्ध-१०


तनकसे कैसे भुजन फिरायो। पलकहि मांझ सबनके देखत मारयो धरणि गिरायो॥ अबलौं हम तुमको नहिं जान्यो तुमहिं जगत प्रतिपालक। सूरदास प्रभु असुर निकंदन ब्रज जनके दुख दालक॥६८॥ कल्याण ॥आवत मोहन धेनुचराए। मोर मुकुट शिर उर वनमाला हाथ लकुट गोरज लपटाए॥ काट कछनी किंकिणि ध्वनि बाजत चरण चलत नूपुर रवराए। ग्वाल मंडली मध्य श्याम घन पीतवसन दामिनिहि लजाए॥ गोपसखा आवत गुण गावत मध्य श्याम हलधर छबिछाए। सूरदास प्रभु असुरक्षसंहारयो ब्रज आवत मन हर्ष बढाए॥६९॥ ये गोरेणु रंजित आवतहैं मोहन लाल। श्याम सुभग तनु तडित वसन वग पंगति मुक्तहार वनमाल॥ गोपद रज मुख पर छबि लागति कुंडलनैन विसाल। बल मोहन बनते बने आवत लीने गैयांजाल॥ ग्वालमंडली मध्य विराजत बाजत वेणु रसाल। सूरश्याम बनते ब्रज आए जननि लिए अँकमाल॥७०॥ कन्हरो ॥ तेरो माई गोपाल रणशूरो। जहँ जहँ भिरत प्रचारि पैजकरि तहीं परतहै पूरो॥ वृषभरूप दानव इक आयो सो क्षणमाँह सँहारयो। पाँवपकरि भुजसों गहिवाको भूतलमाहँ पछारयो। कहत ग्वाल यशुमति धनि मैया बडो पूत तैं जायो यह कोउ आदि। पुरुष अवतारी भाग्यहमारे आयो॥ चरण कमलपै वंदित रहिये अनुदिन सेवा कीजै। बारंबार सूर कहै प्रभुकी हरषि बलैया लीजै॥७१॥ सोरठ ॥ यशुमति बार बार पछितानी। सुनि करतूत वृषभासुरकी जब ग्वाल कही मुखवानी॥ गैयन भीतर आइसमान्यो कान्हहि मारन ताक्यो। मैंनहिं काहूको कछु घाल्यो पुण्यनि करवरनाक्यो॥ सुन यशुमतिमैया कत खीझत हरिके भाए ख्याल। पर्वत तूल देह धरिकै पलकमें कियो बिहाल॥ तुम्हरी रक्षाको यह नाहीं यह ब्रजके रखवार। सूरदास मनमोह्यो सबको मोहन नंदकुमार॥७२॥ सारंगा ॥ हमहि डर कौन कोरी मैंया। डोलत फिरत सकल वृंदावन जाके मीत कन्हैया॥ जब जब गाढ परतिहै हमको तहँ करिलेत सहैया। जिरजीवहु यशुमति सुत तेरो हरि हलधर दोउ भैया॥ इनते बड़े और नहिं कोऊ इहि सब देत बडैया। सूरश्याम सन्मुख जे आए ते सब स्वर्ग चलेया॥७३॥ कान्हरो ॥ हँसि जननी सों बात कहत हरि देख्यो मैं वृंदावन नीके। अति रमणीक भूमि द्रुम वेली कुंज सघन निरखत सुखजीके॥ यमुनाके तट धेनु चराई कहत मात मनवीके। भूखमिटी वनफलके खाए प्यास यमुनजल पीके॥ सुनति यशोदा सुतकी बातैं अति आनंद मगन तबहींके। सूरदास प्रभु विश्वभरनए चोर भए ब्रजतन कदहीके॥७४॥ गोविंद गोकुलकी जीवनि मेरे। जाहि लगाइ रही तन मन धन दुख भूलत मुखहेरे॥ जाके गर्व वद्यो नहिं सुरपति रह्यो सात दिन घेरे। ब्रज हित नाथ गोवर्धन धारे सुभग भुजननख नेरे॥ जाके यश ऋपि गर्ग बखान्यो कहत निगम निज टेरे। सोइ अब सूर सहित संकर्षण पाए जतन घनेरे॥७५॥ अध्याय ॥ ३७॥ अथ केशीवध ॥ मारू ॥असुरपति अति हौ गर्वधरयो। सभामाँझ बैठो गर्जतहै बोलत रोष भरयो॥ महामहा जे सुभट दैत्यबल बैठे सब उमराउ॥ तिहुँभुवन भरि गमिहै मेरो मो सन्मुख को आउ। मो समान सेवक नहि मेरे जाहि कहौ कछु दाव॥ काहि कहौं को ऐसो लायकहै ताते मोहिं पछिताव। नृपतिराइ आयसुदे मोको ऐसो कवन विचार। तुम अपने चित सोचत जाको असुरनके सरदार॥ जो करि क्रोध जाहि तन ताकों तिनको है संहार। मथुरापति यह सुनि हरषित भयो मनहि धन्यो अतिभार॥ श्वेतछत्र फहरात शीशपर ध्वज पताक वहुबान। ऐसो को जो मोहिं न जानत तिहूँ भुवन मेरी आन॥ असुर वंशजे महाबली सब कहौ काहि ह्वाँ जान। तनकतनकसे महर ढोटोना करि आवै बिन प्रान॥ यह कहि कंस चितै केशीतन कह्यो जाइ करि काज। तृणावर्त शकटा अरु पूतना उनके कृत सुनि लाज॥ तोते कछु ह्वैहै यों जानत धरि आनै ज्योंवाज। छलकै