पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५२०

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दशमस्कन्ध-१० (४२७) तनकसे कैसे भुजन फिरायो । पलकहि मांझ सबनके देखत मारयो धराण गिरायो । अबलों हम तुमको नहिं जान्यो तुमहिं जगत प्रतिपालक । सूरदास प्रभु असुर निकंदन व्रज जनके दुख दाल क॥६८[फयाणा आवत मोहन धेनुचराए । मोर मुकुट शिर र वनमाला हाथ लकुट गोरज लप टाए ॥ काट कछनी किकिाणे पनि वाजत चरण चलत नूपुर वराए। ग्वाल मंडली मध्य श्याम घन पीतवसन दामिनिहि लजाए ॥ गोपसखा आवत गुण गावत मध्य श्याम हलधर छविछाए । सूरदास प्रभु असुरसंहारयोग्रज आवत मन हर्ष बढाए॥६९॥ये गोरेणु रंजित आवत, मोहन लाल। श्याम सुभग तनु तडित वसन वग पंगति मुक्तहार वनमाल ॥ गोपद रज मुख पर छवि लागति कुंडलनैन विसाल । वल मोहन वनते बने आवत लीने गेयांजालाग्विालमंडली मध्य विराजत वाजत वेणु रसालासुरश्याम बनते बन आए जनाने लिए बैंकमाल||७०॥कन्हरोतिरो माई गोपाल रणशूरो। जहँ जहँ भिरत प्रचारि पेजकरि तहीं परतहे पूरो ।। वृपभरूप दानव इक आयो सो क्षणमाँह सँहारयो । पाँवपकरि भुनसो गहिवाको भूतलमाह पछारयो । कहत ग्वाल यशुमति धनि मैया बडो पूत ते जायो यह कोट आदिपुरुप अवतारी भाग्यहमारे आयो।चरण कमलपे वंदित रहिये अनुदिन सेवा कीजावारंवार सर कहे प्रभुकी हरपि वलया लीज।।७।। सोरठ॥ यशुमति वार वार पछितानीसिनि करतूत वृपभासुरकी जब ग्वाल कही मुखवानीगियन भीतर आइसमान्यो कान्हहि मारन ताक्यो । मनहिं काहूको कछु पाल्यो पुण्यनि करवरनाक्यो । सुन यशुमतिमैया कत सीझत हरिके भाए ख्याल । पर्वत तूल देह धरिक पलकमें कियो विहाल ।।तुम्हरी रक्षाको यह नाहीं यह व्रजके रखवार । सूरदास मनमोझो सबको मोहन नंदकुमार ॥७२॥सारंगा हमहि डर कोन कोरी मेंया । डोलत फिरत सकल वृंदावन जाके मीत कन्हैया ।जव जव गाठ परतिहे हमको तहँ करिलेत सहया । जिरजीवह यशमति सुत तेरो हरि हलधर दोर भैया ॥ इनते बड़े और नहिं कोऊ इहि सब देत बडेया । सरश्याम सन्मुख जे आए ते सव स्वर्ग चलेया॥७३॥ कान्हरोहिसि जननी सों वात कहत हरि देख्यो में वृंदावन नीके । आति रमणीक भूमि गुम वेली कुंज सघन निरसत सुखजीके ।। यमुनाके तट धेनु चराई कहत मात मनवीके । भूखमिटी वनफलके खाए प्यास यमुनजल पीके । सुनति यशोदा सुतकी बातें अति आनंद मगन तवहींके । सूरदास प्रभु विश्वभरनए चोर भए बजतन कदहीके ॥७॥गोविंद गोकुलकी जीवनि मेरे।जाहि लगाइ रही तन मन धन दुस भूलत मुखहरे॥ जाके गर्व वयो नहिं सुरपति रह्यो सात दिन धेरे । ब्रज हित नाथ गोवर्धन धारे सुभग भुनननस नेरे ॥ जाके यश ऋपि गर्ग वखान्यो कहत निगम निज टेरे । सोइ अब सूर सहित संकर्षण पाए जतन घनेरे।।७२||अभ्याय ॥ ३७॥ अथ फेशीवध ॥ मारू ॥असुरपति अति हो गर्वधरयो । सभामाँझ बैठो गर्जतहे बोलत रोप भरयो । महामहा जे सुभट दैत्यवल वठे सब उमरागतिहुँभुवन भरि गमिई मेरो मो सन्मुख को आउ । मो समान सेवक नहि मेरे जाहि कहीं कछु दाव । काहि कहों को ऐसो लायकहे ताते मोहिं पछिताव । नृपतिराइ आयसु दे मोको ऐसो कवन विचार । तुम अपने चित सोचत जाको असुरनके सरदार ॥ जो करि क्रोध जाहि तन ताको तिनको संहार । मथुरापति यह सुनि हरपित भयो मनहि धन्यो अतिभार॥ श्वेतछत्र फहरात शीशपर ध्वज पताक वहुवान । ऐसो को जो मोहिं न जानत तिहूँ भुवन मेरी आन ॥ असुर वंशने महावली सब कहो काहि हाँ जान । तनकतनकसे महर टोटोना करि आवे विन प्रान ।। यह कहि कंस चितै केशीतन कहो जाइ करि काज । तृणावर्त शकटा अरु पूतना उनके कृत सुनि लानातोते कछु हहै यों जानत धरि आनै ज्यावान । छलकै