पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४

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- - श्री। अथ - सूरसागर अथ श्रीसूरदासजीरचित सूरसागर सारावली। तथा सवालाखपदके सूचीपत्र । राग कल्पद्रुमावन्दौं श्री हरिपद सुखदाईजाकी कृपा पंगु गिरि लंधै अँधरेको सबकुछ दरशाई॥ वहिरो सुनै गूंग पुनि बोलै रंक चलै शिर छत्र धराई । सूरदास प्रभुकी शरणागत वारम्वार नमो ते पाई ॥ रागिनी काफी तालनति ॥ खेलत यहि विधि हरि होरी हो होरी हो वेद विदित यह वात ॥ टेक-अविगति आदि अनन्त अनूपम अलख पुरुप अविनासी । पूरण ब्रह्म प्रकट पुरुपोत्तम नित निज लोकविलासी ॥१॥ जहँ वृन्दावन आदि अजर जहँ कुंजलता विस्तार । तहँ विहरत प्रिय प्रीतम दोऊ निगम ग गुंजार ॥२॥ रत्न जटित कालिंदीके तट अति पुनीत जहँ नीर । सारस हंस चकोर मोर खग कूजत कोकिल कीर ॥३॥ जहँ गोवर्द्धन पर्वत मणिमय सपन कंदरासार। गोपिनमंडल मध्य विराजत निशिदिन करत विहार ॥४॥ खेलत खेलत चितमें आई सृष्टि करन विस्तार । अपने आप करि प्रकट कियोहै हरी पुरुष अवतार ॥ ५॥ माया कियो क्षोभ बहु विधि करि कालपुरुष के अंग। राजत तामस सात्त्विक त्रयगुण प्रकृति पुरुपको संग॥६॥ कीन्हें तत्त्व प्रकट तेही क्षण सबै अष्ट अरु वीश । तिनके नाम कहत कवि सूरज निर्गुण सबके ईश॥७॥ पृथिवी अप तेज वायु नभ संज्ञा शब्द परस अरु गन्ध । रस अरु रूप और मन बुधि चित अहंकार मतिअन्ध ॥८॥पान अपान व्यान उदान और कहियत प्राण समान । तक्षक धनंजय पुनि देवदत्त और पौंड्रक शंख घुमान ॥९॥राजस तामस सात्त्विक तीनों जीव ब्रह्म मुखधाम । अट्ठाईस तत्त्व यह कहियत सो कवि सुरज नाम ॥ १०॥ नाभि कमल नारायणकीसो वेद गर्व अवतार । नाभि कमल में बहुतहि भटक्यो तऊ न भायो पार ॥ ११ ॥ तव आज्ञाभइ यह हरिकी अज करो परमतप आप । तव ब्रह्मा तप कियो वर्षशत दूरिभये सब पाप ॥ १२॥ तव दर्शन दीन्हों करुणाकर परमधाम निज लोक । ताको दर्शन देखि भयो अज सब वातन निःशोक ॥ १३ ॥ जहां आदि निजलोक महानिधि रमा सहस संयूत । आंदोलन झुलत करुणानिधि रमासुखद.अतिपूत ॥१४॥ स्तुतिकरें विविध नाना कर परम पुरुष आनन्द । जय जय जय श्रुति गीत गायकै पढ़त हैं नानाछंद ।। १६ ॥ आज्ञा, करी नाथ चतुरानन करो सृष्टि विस्तार । होरी खेलन की विधि नीकी रचना रचे अपार ॥ १६॥ चौदह लोक करो नानाविधि रचि वैकुंठ पताल । नाना रचना रची विधाता होरीखेल रसाल ॥ १७॥ दशहीपुत्रभये ब्रह्माके जिन संच्यो संसार । स्वायंभुवमनु प्रकट तब कीन्हे अरु शतरूपा नार ॥ ॥ १८॥ भुवकी रक्षा करन जु कारण परि वराह अवतार । पीछे कपिलरूप हरि धारयों कीन्हों सांख्य विचार ॥ १९ ॥ दीन्हों ज्ञान आप माताको कीन्हों भवनिस्तार । आगे. लोकपाल तब