पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४६

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दशमस्कन्ध-१० हार जगायो । सूरबास वल श्यामके नाहिं पलक लगायो ॥७१॥ नंदस्वप्न भ्रमः ॥ विलावल। उत नंदहि स्वप्नो भयो हरि कहूं हिराने । बल मोहन कोउ लै गयो सुनिकै विलखाने ॥ ग्वाल बाल रोवत कहें हरितौ कहुँ नाहीं। संगहि सँग खेलत रहे यह कहि पछिताहीं।।दूत एक सँग लै गयो बल राम कन्हाई । कहा ठगौरीसी करी मोहनी लगाई ॥ वाह के दोउ लै गए हम देखत ठाढे । सूरज प्रभु वै निठुरकै अतिही गए गाढे ॥७२॥सोरठ।। व्याकुल नंद सुनतहैं वानी । धरणीमुरछिपरे अति व्याकुल विवसयशोदारानी व्याकुल गोप ग्वाल सब व्याकुल व्याकुल व्रजकी नारी।व्याकुल सखा श्याम बलके जे व्याकुल अति जियभारी ॥ धरणी परत उठत पुनि धावत इहि अंतर नंदजागे । धकधकात उर नैन श्रवत जल सुत अंग परसन लागे ॥ सुसुकत सुनि यशुमति अतुराई कहा म हर भ्रम पायो । सूर नंदघरनीके आगे यह भ्रम नहीं सुनायो॥ ७३ ॥ फंसकयावदत ॥ कल्याण ॥ एक याम नृपको निशि युगवत भई भारी । आपुनह जायो संग जागी सब नारी ॥ कबहुँ उठत वैठत पुनि कबहूं सेज सोवै । कबहुँ अजिर ठाढ ऐसे निशि खोवै॥वारवार जोतिकसों घरी बूझि आवै । एक जाइ पहुँचै नहीं और एक पठावै॥जोतिक जिय त्रास परयो कहा प्रात करिहै।सूर क्रोध भन्यो नृपति काके शिरपरिहै ।। ७४ ॥ व्याकुल टेरे निकटिवूझे घरी वाकी । एक एक छिन याम याम ऐसी गति ताकी ॥ को जैहै व्रजको मन करै केहि पठाऊ । जासों कहि नंदसुवन आजुही मगाऊ॥ अब नहिं राखौं उठाइ वैरी नहिं नान्हो । मारौं गजपै रुंदाइ मनहि यह अनुमान्हो ॥ पठऊ तौ अरहिको ऐसो नहिं कोऊ। सूर जाइ गोकुलते ल्याव ढिग दोऊ ॥७६।। बिलावल ।। अरुणोदय उठि प्रातही अक्रूर बोलाए । आपु कह्यो प्रतिहारसों इक सुनि शतधाये ॥ सोअत जाइ जगायकै चलिए नृप पासा । उह मंत्र मन जानिकै उठि चले उदासा ।। नृपति द्वारही पै खरो देखत शिर नायो । कहि खवासको सैनदै शिरपाव मँगायो । अपने कर करिकै दियो सुफलकम्त लीन्हों । लें आवहु सुत नंदके यह आयसु दीन्हां ।। मुख अकूर हपित भयो हृदय विलखानो । असुरत्रास अति जिय पन्यो कह कहै सयानो ॥ तुरतहि रथ पलनाइकै अरहि दीन्हों। आयसु शिरपर मानिकै आतुरलै लीन्हों । विलम करौ जिनि नेकहूं अवहीं ब्रजजाहू । सूर काजकरि आवह जिनि रोनि वसाहू७६॥बिलावल।। कंस नृपति अक्रूर बोलायो । वैठि एकांत मंत्र दृढ कीनों राम कृष्ण दोउ बंधु मँगायो । कहूँ मल्ल कहुँ गजदै राखे कहूं धनुप कहुँ वीर । नंदमहरको बालक मेरे कर्पत रहत शरीर ॥ उनाहे वुलाइ वीचही मारौं नगर न आवन पावें । सूर सुनत अक्रूर कहत नृप मन मन मौज वढावें॥७७॥ फल्याण।तुम दिन मेरे हितू नकोज। सुन अकूर पुरत नृप भाषित नंदमहर सुत ल्यावहुँ दोऊ । सुनि रुचि वचन रोम हरपित गात प्रेमपुलकि मुख कछू नवोल्यो । यह आयसु पूरव सुकृत वश सो काहूपे जाहि नतौल्यो॥ मौन देखि परिहसि नृप भीनो मनहुँ सिंह गो आय तुलानो । वहि क्रम विनु बैसुत अहीर के रे कातर कत मन संकानो ॥ आयसु पाइ मुष्ट रथ कर गहि अनुपम तुरंग साजि धृत जोयो । सूरश्यामकी मिलान सुरति कार मनुनिधरन धन पाइ विमोह्यो ॥७८|मकर वचन कंसों ॥ विलावल।सुनहु देव इक बात जनाऊं। आय सु भयो तुरत ले आवहु ताते फिरिहि सुनाऊ वल मोहन वनजात प्रातही जो उनको नहिं पाऊं। रहों आज नंद गृह वसिकै कालि प्रात ले आऊं ॥ यह कहि चल्यो नृपतिहू मान्यो सुफलसुतक रथ हांक्यो। सूरदास प्रभु ध्यान हृदय धरि गोकुल तनको ताक्यो।।७९॥ अक्रूर गोकुल गमन ॥ टोडी। सुफलक सुत मन परयो विचाराकस निवेश होइ हत्यार॥डगर मांझ रथ कीन्हों गढोसोच परयो -