पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४५

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(४५२) सूरसागर। प्रगट भयो वसुधा माहीं । कासों कहौं सूर अंतरकी सुफलकसुतको वचन चही ॥६२|| रागसोरठ ॥ महर दोटौना शालिरहे । जन्महिते अपड़ाव करत हैं गुणिं गुणि हृदय कहै ॥ दनुजसुता पहिले संहारी पयपीवत दिन सात । गयो प्रतिज्ञा कार कागासुर आइ गिरयो मुख छात ।। तृणा शकट छिनमें संहारे केशी हतो प्रचारि । जे जे गए बहार नहिं देखे सवहिन डारे मार ॥ ज्यों त्यों कार इन दुहुँन संहारौं बात नहीं कछु और । सूर नृपति अति सोच परो जिय यहै करत मनदौर ॥१३॥ ॥ रामकली ॥ नंदसुत सहज बुलाइ पठाऊं। श्याम राम अति सुंदर कहियत देखन काज मँगाऊं। जैहै कौन प्रेमकार ल्याव भेद नजानै कोइ । महर महरि सों हितकार ल्याव महाचतुर जो होइ ।। इहि अंतर अङ्कर बुलायो अति आतुर महाराजासूरचलौ मनसोच बढ़ायो कौनहै ऐसो काज॥६॥ ॥धनाश्री|अति आतुर नृप मोहिं बोलायो। कौन काज ऐसो अटक्यो है मन मन सोच वढायोआ तुर जाइ पँवरि भयो ठाढो कहो पवरिआ जाइ । सुनत बुलाइ महलई लीनो सुफलकसुत गयो धाइ ॥ कछु डर कछु जिय धीरज धारै गयो नृपतिके पास । सूर सोच मुख देखि डेरा नो उरथ लेत उसास ॥६६॥ मारू ॥ सोच मुख देखि अक्रूर भरमे । माथकरनाइ करजोर दोऊ रहे बोलि लीन्हो निकट वचन नरमे ॥ आपुही कंस तहां दूसरो कोउ नहीं त्रास अ क्रूर जिय कहा कैहै । नृपति जिय सोच जान्यो हृदय आपने कहत कछु नहीं धौं प्राणलहै ।। निकट बैगरि सब बात तेई कही गए जे भाषि नारद सवाएँ । सूर सुत नंदके हृदय शालत सदा मंत्र यह उनहिं अब बनै मा॥६६॥सुनो अक्रूर यह बात सांची करौ आजु मोहिं भोरते चेत नाहीं। श्याम बलराम यह नाम सुनि ताम मोहिं काहूं पठावहुगे जाइ तिनहि पाहीं ॥ प्रीति करि नंदसों सहज बातें कहै तुरत लै आइ दुहुँ नृपति बोले । देखिवेकी साध बहुत सुनि गुण विपुल अतिहि सुंदर सुने दोउ अमाले ॥ कमल जबते उरग पीठि ल्याए सुने वैहैं वकशीश अब उतहि दैहैं। सूर प्रभु श्याम बलरामको डर नहीं वचन इनके सुनत हरपपैहैं ॥६७॥सोरठ।। यह वाणी कहि कंस सुनाइ । तव अनूर हिए भयो धीरज डरडारयो विसराइ ॥ मन मन कहत कहा चित बैठी सुनि मुनि वैसी वानी। अपनो काल आपुही बोल्यो इनकी मीच तुलानी ॥ हरषि वचन अक्रूर कहे तव तुरत काज यह कीजै । सूर जाहि आयसु करि पाऊं भोर पठै तेहि दीजै ॥६८॥विलावल। तब अक्रूर कहत नृप आगे धन्य धन्य नारद मुनि ज्ञानी। बडे शत्रु ब्रजमें दोउ हमको सुनहु देव नीकी चित आनी।महाराज तुम सरि को ऐसो जाते जगत यह चलत कहानी।अब नहिं बचै क्रोध नृपकीन्हो जैहै छनकि तवा ज्यों पानी ॥ यह सुनि हर्ष भयो गर्वानो जवहि कही अक्रूर सयानीकालि बुलाई सूर दोउमारौं बार बार यह भाषत बानी।।६९॥इहै मंत्र अङ्करसों नृप रैनि विचारी । प्रात नंदसुत मारिहौं यह कह्यो प्रचारी ।। करि विचार युग यामलौं मंदिरहि पधारे। कह्यो जादु भङ्करसों भए आलस भारे। तुरत जाइ पलका परयो पलकनि झपकानो । श्याम राम स्वपने खडे तहां देखि डरानो ॥ अति कठोर दोउ कालसे भरम्यो अति झझक्यो । जागि परयो तहँ कोउ नहीं जियही जिय सुसक्यो । चौंकि परयो सँग नारिके रानी सब जागी । उठी सबै अकुलाइकै तब वूझन लागीं ॥ महाराज झझके कहा सपने कह सके । सूर अतिः व्याकुल भए घर घर उर देके ॥७॥ ॥ कंस स्वप्न भ्रमः ॥ महाराज क्यों आजही स्वप्ने झझकाने । पौढे जवहीं आनिकै देखे विलखाने॥ कहा सोच ऐसो परयो ऐसे भूमीको। काकी सुधि मनमें रही कहिए अपजीको ॥रानी सब व्याकुल भई कछु भेद न पाएँ । तब आपुन सहजहि कह्यो वह नहीं जनाः ।। सावधान करि पौरिमा प्रति