पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४८

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दशमस्कन्ध-30 ॥ कल्याणासुफलक सुत हरि दरशन पायो।रहि न सक्यो स्थपर सुख व्याकुल भयोउहै मन भायो।। भूपर दौरि निकट हरि आयो चरणन चित्त लगायो । पुलक अंग लोचन जलधारा श्रीगृह शिर परसायो । कृपासिंधु करि कृपा मिले हाँसि लियो भक्त उर लाई । सूरदास यह सुखसो जाने कहाँ कहा मैं गाइ ॥८९॥गुंडमलार।हरपि अक्रूर हरि हृदय लायो। मिले तेहि भाव जो भाव चित पनि चित्त भक्त वत्सल नाम तो कहायो ॥ कुशल वूझत प्रसन्न वचन अमृत रस श्रवण सुनि पुलक अंग भंग कीन्हों । चितै आनन चारु बुद्धि र विस्तार दनुज अब दलौं यह ज्वाव दीनों भेदही भेद सब दई वाणी कही तुरत बोले हेतु इहै वाके । सूर संग श्याम बलराम अक्रूर सहनिपट अति प्रेमके पंथ थाके ॥९०॥ विलावल ॥ श्याम इहै काहिकै उठे नृप हमैं बोलाये । अतिहि कृपा हमपर करी जो कालि मँगाए ॥ संग सखा यह सुनतही चकृत मनकीन्हो । कहा कहत हरि सुनतही लोचन भरि लीन्हो॥श्याम सखन मुख हेरिकै तब करी सयानी।कालि चलौ नृप देखिए संका जिय आनी॥ हर्प भए हरि यह कहे मन मन दुखभारी । सूर संग अङ्करके हरि बन पग धारी ॥९॥रामकली ॥ अति कोमल वलराम कन्हाई।।दुहुँनि गोद अक्रूर लिए हॉस सुमनहुते हरुवाई ॥ ग्वाल संग रथ लीन्हें आए पहुँचे व्रज की खोरी । देखत गोकुल लोग जहांतहँ नंद उठे सुनि सोरी ॥ निशि सपनेको तृपित भए अति सुन्यो कसको दूत । सूर नारि नर देखनधाए घर घर सोर अकूत ॥९२॥ गुंडमलार ॥ कंस नृप अक्रूर व्रज पठाए । गए आगे लेन नंद उपनंद मिील श्याम वलराम उन हृदय लाए ॥ उतरि संदन मिल्यो देखि हरप्यो हियो सोच मन यह भयो कहाँ आयो। राजके काजको नाम अक्कूर यह किधी कर लेनको नृप पायो। कुशल तोह झि लै गए व्रज निजधाम श्याम वलराम मिलि गए वाको ॥ चरण पखराइकै सुभग आसन दियो विविध भोजन तुरत दियो ताको।कियो अक्रूर भोजन दुहुँन संग लै नर नारि ब्रज लोग सवै दे। मनो आए संग देखि ऐसे रंग मनहि मन परस्पर करत मेपै ॥ सारि जेवनार अचवनकै भए शुद्ध दियो तमोर नँद हर्प आगे । सेज बैठारि अकूरसों जोरिकर कृपा करी तब कहन लागे ॥ श्याम बलरामको कंस बोले हेतसों नंदलै सुतन हम पास आवै । सूर प्रभु दरशकी साध अतिही करत आजुही कह्यो जिनि गहरु ला॥९३॥ान्हरोासुन्यो बज लोग कहत यह वात । चकृत भए नारि नर ठाढे पांच न आवे सात ॥ चकित नंद यशुमति भई चकृत मनही मन अकुलात । दैदै सैन श्याम बलरामहि सवै बुलावत जात। पारब्रह्म अविगति अविनाशी माया रहित अतीत ।मनों नहीं पहिचानि कहूंकी करत सबै मनभीत । बोलत नहीं नेक चितवत नहिं सुफलकसुतसों पागे । सूर हमाहि नृपहित करि बोले इहै कहत ताआगे॥९॥विहागगीव्याकुलभए ब्रजके लोग। श्याम मन नहिं नेक आनत ब्रह्म पूरण योग ।। कौन माता पिता कोहै कौन पति कोनारि । हँसत. दोउ अङ्करके सँग नवल नेह विसारि ॥ कोउ कहति यह कहां आयोकूर याको नाम । सूर प्रभु लै प्रात जैहै और सँग वलराम।।९६॥गोपिकाविरहअवस्थावर्णन ॥चलन चलन श्याम कहत कोउ लेन आयो नंद भवन भनक सुनी कंस कहि पठायो।ब्रजकी नारि गृहविसारि व्याकुल उठिधाई । समाचार झनको आतुरलै आई। प्रीति जानि हेतु मानि विलखि वदन ढाढी। मानहु वै अति विचित्र चित्र लिखित काढी ॥ ऐसी गति ठौर ठौर कहत न बनि आवै । सूर. श्याम विठुरे दुख विरह काहि भावै ॥१६॥कान्हरोगा-चलत जानि चितवत बज युवती मानहु लिखी चितेरे । जहां सु तहां यंकटक मग जोवत फिरत न लोचन कोरे ॥ विसरि गई गति भांति देहकी सुनत नश्रवणन टेरे।