सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४५६)
सूरसागर।


मिलि जु गये मनोपय पानी है निबरत नहीं निवेरे॥ लागे संग मतंग मत्तज्यों घिरत न कैसेहु घेरे। सूर प्रेम अंकुर आशा जिय दै नहिं इत उत हेरे॥९७॥ सारंग ॥ सब मुरझानीरी चलिवेकी सुनत भनक। गोपी ग्वाल नैन जल ढारत गोकुल ह्वैरह्यो मूदचनक इक॥ यह अक्रूर कहांते आयो दाहन लाग्यो देह दनक। सूरदास स्वामीके बिछुरत घट नहिं रैहैं प्राणतनक॥९८॥ रामकली ॥ अनलते विरह अग्नि अति ताती। माधो चलन कहत मधुवनको सुने तपै अतिछाती॥ न्याइहि नागरि नारि विरहवश जरत दिया ज्यों बाती। जे जरि मेरे प्रगट पावक परि तेत्रिय अधिक सुहाती॥ ढारति नीरनयन भरि भरि सब व्याकुलता मदमाती। सूर व्यथा सोई पै जानै श्याम सुभग रँगराती॥९९॥ आसावरी ॥ श्यामगए सखि प्राण रहैंगे। अरसपरस ज्यों बातैं कहियत तैसेहि बहुरि कहैंगे॥ इंदुवदन खग नैन हमारे जानति और चहेंगे। वासर निशि कहुँ होत नन्यारे बिछुरन हृदय सहैंगे॥ एक कहौ तुम आगे वाणी श्याम न जाहि रहैंगे। सूरदास प्रभु यशुमति को तजि मथुरा कहा लहैंगे॥२५००॥ मलार ॥ हरि मोसों गौनकी कथा कही। मन गह्वर मोहिं उतर न आयो हौं सुनि सोचिरही॥ सुन सखी सत्यभावकी बातैं विरह बेलि उलही। करवत चिह्न कहै हरि हमकों ते अब होत सही॥ आजु सखी सपनेमैं देख्यो सागर पालि ढही। सूरदास प्रभु तुम्हरो गवन सुनि जलज्यों जाति बही॥१॥ मारू ॥ बहुत दुख पैयतुहै यह बात। तुम जु सुनतहौ माधो मधुवन सुफलकसुत सँग जात॥ मनसिज व्यथा दहति दावानल उपजीहै या गात। सूधौ कहाँ तब कैसे जीहैं निज चलिहौ उठि प्रात॥ जोपै यहै कियो चाहतहै मीचु विरह शरघात। सूरश्याम तौ तब कत राखी गिरिकरलै दिनसात॥२॥ अक्रूरवचन ॥ रामकली ॥ देख अक्रूर नर नारि बिलख्यो। धनुर्भंजन यज्ञहेत बोले इनहि और डर नहीं सबन कहि सँतोख्यो महरि व्याकुल दौरि पाँइ गहि लैपरी नंद उपनंद सँग जाहु लैकै। राजको अंशलिखि लेउ दूनो देउँ मैं कहा करौं सुत दुहुनि देकै॥ कहति ब्रजनारि नैनननीर ढारिकै इननको काज मथुरा कहाहै। सूर नृप क्रूर अक्रूर क्रूरै भयो धनुष देखन कहत कपटी महाहै॥३॥ यशोदा विनय अक्रूरमति सारंग ॥ मेरे कमलनयन प्राणते प्यारे। इनको कौन मधुपुरी बैठत राम कृष्ण दोऊ जन वारे। यशुदा कहै सुनहु सुफलकसुत मैं पयपान जतन करिपारे॥ ए कहा जानहिं सभा राजकी ए गुरुजन विप्रौ न जुहारे॥ मथुरा असुर समूह बसतह करकृपाण योधा हथियारे। सूरदास स्वामी एलरिका इन कब देखे मल्ल अखारे॥ ब्रजवासिनके सरवस श्याम। रेअक्रूर क्रूर बडवारे जीको जी मोहन बलराम॥ अपनो लाग लेहु लेखो करि जे कछु राज अंशका दाम। और महरले संग सिधारे नगर कहा लरिकनको काम॥ संतत साध परम उपकारी सुनियत बडो तुम्हारो नाम॥ यशोदा वचन सखी मति॥५॥ मलार ॥ सखीरी हो गोपालहि लागी। कैसे जियें बदन बिन देखे अनुदिन खिन अनुरागी॥ गोकुल कान्ह कमल दल लोचन हरि सबहिनके प्राण। कौन न्याव अक्रूर कहतहै कहै मथुरा लै जान॥ तुम अक्रूर बडेके ढोटा अति कुलीन मतिधीर। बैठत सभा बडे राजनके जानतहो परपीर॥ लिजे लागु यहांते अपनो जो कछु राजको अंश। नगर बोलि ग्वालनके लरिका कहा करैगो कैंस॥ मेरे तो रामै धन माई माधोई सब अंग। बहुरि सूरहौं कापै मांगों पैठि पराए संग॥६॥ रामकली ॥ मेरो माई निधनीको धन माधो। बारंबार निरखि सुख मानत तजत नहीं पलआधो॥ छिन छिन परसत अंश मिलावत प्रेम प्रगटह्वै लाधौ। निशि दिन सुचंद्र चकोरकी छबि जनु मिटै नदरशकी साधौ॥ करिहै कहा अक्रूर हमारो दैहै प्राण अगाधो। सूर श्याम