सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४६१)
दशमस्कन्ध-१०


ठकुराईतकियो गिरिधरकी सूरदास जनजानी॥४७॥ यशोदा विलाप ॥ धनाश्री ॥ है कोइ ऐसी भांति देखावे। किंकिणि शब्द चलत ध्वनि रुनु झुनु ठुमक ठुमक गृह आवै। कछुक विलाप वदनकी सोभा अरुन कोटि गति पावै। कंचन मुकुट कंठ मुक्तावलि मोरपंखछविछावै। धूसर धूरि अंग सँगलीने ग्वाल बाल सँगलावै। सूरदास प्रभु कहति यशोदा भाग्य बड़ेते पावै॥४८॥ सोरठ ॥ मनौंहो ऐसेही मरिजैहौं। इहि आंगन गोपाल लालको कबहुँककंनियां लैहौं॥ कवै वह मुहुरौं देखौंगी कब वैसो सचुपैहौं। कबमोपै माखन माँगैंगे कब रोटी धरि दैहौं॥ मिलन आश तनु प्राण रहतहैं दिन दश मारग चैहौं। जो न सूर कान्ह आइ है तौ जाइ यमुन धँसि लैहौं॥४९॥ अध्याय ॥ ३९ ॥ तथा ॥ ४० ॥ अक्रूर दरशन प्राप्त हेतु तथा श्रीकृष्ण स्तुतिवर्णनं ॥ गुंड मलार ॥ मनही मन अक्रूर सोच भारी। जननी दुःखित करि इनहि मैं लै चल्यो भई व्याकुल सबै घोषनारी॥ अतिहि ए बाल हैं भोजन नवनीतके जानि लीन्हें जात दनुज पासा। कुवलियामल्ल मुष्टिक चाणूरसे कियो मैं कर्म यह अति उदासा॥ फेरि लेजाउँ ब्रज श्याम बलरामको कंसलै मोहि तब जीवमारै। सूरपूरण ब्रह्म निगम नाहीं गम्य तिनहि अक्रूर मन यह विचारै॥५०॥ इहै सोच अक्रूर परयो। लिए जात इनको मैं मथुरा कंसहि महाडरयो॥ धृग मोको धृग मेरी करनी तबहीं क्यों नमरयो॥ मैंदेखों इनको अवहतिहै अति व्याकुलह रयो। यहि अंतर यमुना तट आए स्नान दान कियो खरयो। सूरदास प्रभु अंतर्यामी भक्त संदेह सरयो॥॥५१॥ धनाश्री ॥ सुफलकसुत दुख दूरि करयो। यमुना तीर कियो रथठाढो आपुहि प्रगट हरंयो॥ तिनहि कह्यो तुम स्नान करौ ह्यां हमाहिं कलेऊ देहु। भूख लगी भोजन करिहैं हम नेम सारि तुम लेहु। तबलौं नंद गोप सब आवैं संग मिले सब जैहैं॥ सूरदास प्रभु कहतहैं पुनि पुनि तब अति ही सुख पैहैं॥५२॥ गुंडमलार ॥ सुनत अक्रूर यह बात हरषे। श्याम बलरामको तुरत भोजन दियो आपु स्नानको नीर परषे॥ गए कटिनीरलौं नित्य संकल्प करि करत स्नान इकभाव देख्यो। जैसोई श्याम बलराम श्रीस्यन्दन चढे वहै छबि कुँवर सर मांझ पख्यो॥ चकृत मनभयए कबहुँ तीर पुनि जल निरखि धोप अक्रूर जिय भयो भारी॥ सूर प्रभु चरित में थकित अतिही भयो तहां दरशे नित स्थल बिहारी॥५३॥ कान्हरो ॥ कमल पर वज्र धरति उर लाइ। राजतिरमा कुंभरस अंतर पति निज स्थल जलसाइ॥ वैनतेइ संपुट सनकादिक चतुरानन जय विजय सखाइ। औसर वाग विसारद हाहा जित गुण गाइ॥ कनक दंड सारंग विविधरव कीरति निगम सिद्ध सुरधाइ। तिनके चरण सरोज सूर अब किए गुरु कृपा सहाइ॥५४॥ धनाश्री ॥ हरष अक्रूर हृदय नमाइ। नेम भूल्यो ध्यान श्याम बलरामको हृदय आनंद मुख कहि नजाइ॥ ब्रह्म पूरण अकल कलाते रहित ए हरता करता समर्थ और नाही। कहा वपुरो कंस मिट्यो तब मन संस करत है गंस निर्वंशजाही। हांकि रथ चढि चल्यो विलम अब कहा प्रभु गयो संदेह अक्रूर जोको। नंद उपनंद सँग ग्वाल बहुभारलै आइ सदनहि मिले सूर पीको॥५५॥ अक्रूर श्रीकृष्ण स्तुति राग कल्याण ॥ बा बार श्याम राम अक्रूरहि गानै। अबहीं तुम हरष भए तबहीं मन मारि रहे चलेजात स्थहि बात बूझत हैं वाने॥ कहौ नहीं सांची सो हमसों जिनि गोपकरौ सुनिकै अक्रूर विमल स्तुति मानै। सूरज प्रभु गुण अथाह धन्य धन्य श्रीप्रियानाह निगमनको अगाध सहसानन नहिं जाने॥५६॥ बिलावल ॥ बारबार मोसों कहा बूझत तुमहौ पूरण ब्रह्म गुसाँई। तुम हर्ता तुम कर्ता एकै तुमहौ अखिल भवनके सांई॥ कहामल्ल चाणूर कुवलिया अब जिय त्रास नहीं तिननैको सूरदास प्रभु कंस निपातहु गहरु नकीजै अब वैसेनको॥५७॥ राग धनाश्री ॥ बूझतहैं अक्रूर