पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सूरसागर (१६०) जब हरि ऐसो ख्याल करत है काहु न पात चलाई। ब्रजही वसतविमुख भई हरिसों शूल न उरते जाई।सूरदास प्रभु विनु ब्रज ऐसो एको पल नसोहाई॥३७॥मलागासखीरी वह देखो रथजाताकमल नैन काँधे पर न्यारो पीत वसन फहरात ॥ लई जाइ जब ओट अटनकी चीरन रहत कृषगात ।। छत्र पत्र ध्वज कनकदलमानों ऊपर पवन विहात ॥ मधु छुडाइ सुफलकसुतलैगए ज्यों माषी भयहीन । सूरदास प्रभु विनु देखियत है सकल विरह आधीन॥३८॥ सारंग ॥ पाछेही चितवन मेरे लोचन आगे परत न पाँइ । मनलै चली माधुरी मूरति कहाकरौं ब्रजजाइ॥ पवन नभई पताका अंबर भई नरथके अंग । धूरि न भई चरण लपटाती जाती वहँलौं संग ॥ ठाढी कहा करौ मेरी सजनी जिहि विधि मिलहिं गोपालासूरदास प्रभु पठै मधुपुरी मुरझिपरी व्रजवाला॥३९॥ नट ॥ तवान विचारीरी यह बात । चलत न फेंट गही मोहनकी अव ठाढी पछितात ॥ निरखि निरखि मुख रही मौन थकित भई पलपात । जब रथ भयो अदृष्ट अगोचर लोचन आति अकुलात । सबै अजान भई वहि औसर धिगहि यशोमति मात । सूरदास स्वामीके विछरे कौडी भरिन विकाता॥४०॥सारंगाअब वै बातेंईयाँ रही।मोहन मुख मुसकाइ चलत कछु काहू नहीं कही। सखी सुलाज वश समुझि परस्पर सन्मुख सबै सही। अब वैशालतिहैं उरमहियां कैसेह कठति नहीं। त्यों ज्यों सलिल करनको सजनी काहेको फिरति वही । हरि चुंबक जहां मिलहि सूर । प्रभ मो लैजाउँ तही ॥४१॥रागनट। मेरी वज्रकी छाती विदरि करि नहिं जाति।हरिहि चलत चित वत मग ठाढी पछिताति ॥ विद्यमान विरह शूल उर में जुसमाति । आवनकी आश लागि अव विही पत्याति ॥ प्रेमकथा प्रगट भई शरद रासरति । प्राणनाथ विछुरे सखी जीवत नलजति ॥ एकै पै सुरति रही वदन कमल कांति । ज्यों ठग निधिहि हरत कीरंचक गुरदै केहू भांति । इमि फिरि मुसकानि सूर मनसागाई मातिििचतवनि मन मादक भई जागत अकुलाति॥४२॥गौरी आज रोनि नहिं नींद परी । जागत गनत गगनके तारे रसनारटत गोविंद हरी ॥ वह चितवन वह रथकी बैठन जब अक्रूरकी वाह गही चितवत रही ठगी सी ठगढी कह न सकति कछु काम दही।इतने मान व्याकुल भई सजनी आरज पंथ हुते विविडरी। सूरदास प्रभु जहा सिधारे कितिक दुरि मथरा नगरी ॥४३॥रागसारंग॥ हरि विछुरत फाट्योन हियो।भयो कठोर वज्रते भारी रहिकै पापी कहा कियो ॥ घोरि हलाहल सुनरी सजनी औसर तेहि न पियो । मन सुघि गई सँभारति नाहिं न पूरो दाँव अङ्कर दियो । कछु न सुहाइ गई सुधि तक्ते भवन काज को नेम लियो । निशि दिन रटत सुरके प्रभु विनु मरिवो तऊ न जात जियो ॥४४॥अडानो।सुदर वदनरी मुखसदन श्याम | को निरखि नैन मन थाक्यो। वारक इन वीथिन निकसे मैं दूरि झरोखनि झाक्यो । उन । कछु नैक चतुरई कीनी गेंद उछारि गगन मिस ताक्यो । वारों लाज भईः मोको वैरनि मैं गवारि मुख ढाक्यो । कछु करिगए तनक चितवनिमें याते रहत प्रेम मद छाक्यो।सूरदास प्रभु सर्वसुलै : गए हँसत हँसत रथ हाँक्यो ॥४५॥सारंग।। अरी मोहिं भवन भयानक लागेमाई श्याम विनादेिखहिं. जाइ काहि लोचन भरि नंद महरके अँगना ॥ लैजुगए अक्रूर ताहिको बजके प्राणधना।कौन सहाय करै घर अपने मेटै विधिन धना ॥ काहि उठाइ गोद करि लीजै करि करि मनमगना । सूरदास मोहन दरशन विनु सुख सपति सपना ॥४६॥ मलार ॥ सब कोउ कहत गोपाल दोहाई|गोरस बेचन गई बबाकी सो हो मथुराते आई॥जवते कह्यो कस सों मनमोहन जीवत मृतक करि लेखो।जागत | सोवत आश देवनकी कृष्ण कला सब देखो।करत ओष प्रजा लोग सब नृपति के संक नमानी।