जब हरि ऐसो ख्याल करत है काहु न पात चलाई। ब्रजही वसतविमुख भई हरिसों शूल न उरते जाई॥ सूरदास प्रभु बिनु ब्रज ऐसो एको पल नसोहाई॥३७॥ मलार ॥ सखीरी वह देखो रथजात। कमल
नैन काँधे पर न्यारो पीत वसन फहरात॥ लई जाइ जब ओट अटनकी चीरन रहत कृषगात। छत्र पत्र ध्वज कनकदलमानों ऊपर पवन विहात॥ मधु छुडाइ सुफलकसुतलैगए ज्यों माघी भयहीन। सूरदास प्रभु बिनु देखियत है सकल विरह आधीन॥३८॥ सारंग ॥ पाछेही चितवन मेरे लोचन आगे परत न पाँइ। मनलै चली माधुरी मूरति कहाकरौं ब्रजजाइ॥ पवन नभई
पताका अंबर भई नरथके अंग। धूरि न भई चरण लपटाती जाती वहँलौं संग॥ ठाढी कहा करौ मेरी सजनी जिहि विधि मिलहिं गोपाल। सूरदास प्रभु पठै मधुपुरी मुरझिपरी ब्रजबाल॥३९॥ नट ॥ तब न विचारीरी यह बात। चलत न फेंट गही मोहनकी अब ठाढी पछितात॥ निरखि निरखि मुख रही मौनह्वै थकित भई पलपात। जब रथ भयो अदृष्ट अगोचर लोचन अति अकुलात। सबै अजान भई वहि औसर धिगहि यशोमति मात। सूरदास स्वामीके बिछुरे कौडी भरि न बिकाता॥४०॥ सारंग ॥ अब वै बातैंईह्याँ रही। मोहन मुख मुसकाइ चलत कछु काहू नहीं कही॥
सखी सुलाज वश समुझि परस्पर सन्मुख सबै सही॥ अब वै शालतिहैं उरमहियां कैसेहु कढति नहीं॥ त्यों ज्यों सलिल करनको सजनी काहेको फिरति वही। हरि चुंबक जहां मिलहि सूर प्रभु मो लैजाउँ तही॥४१॥ रागनट ॥ मेरी वज्रकी छाती विदरि करि नहिं जाति। हरिहि चलत चित
वत मग ठाढी पछिताति॥ विद्यमान विरह शूल उर में जुसमाति। आवनकी आश लागि अवधिही पत्याति॥ प्रेमकथा प्रगट भई शरद रासरति। प्राणनाथ बिछुरे सखी जीवत नलजति॥ एकै पै सुरति रही वदन कमल कांति। ज्यों ठग निधिहि हरत कीरंचक गुरदै केहू भांति। इमि फिरि मुसकानि सूर मनसागाई माति। चितवनि मन मादक भई जागत अकुलाति॥४२॥ गौरी ॥आजु रैनि नहिं नींद परी। जागत गनत गगनके तारे रसनारटत गोविंद हरी॥ वह चितवन वह रथकी बैठन जब अक्रूरकी वाँह गही चितवत रही ठगी सी ठाढी कह न सकति कछु काम दही॥ इतने मान व्याकुल भई सजनी आरज पंथ हुते विविडरी। सूरदास प्रभु जहा सिधारे कितिक दुरि मथुरा नगरी॥४३॥ रागसारंग ॥ हरि बिछुरत फाट्यो न हियो। भयो कठोर वज्रते भारी रहिकै पापी कहा कियो॥ घोरि हलाहल सुनरी सजनी औसर तेहि न पियो। मन सुघि गई सँभारति नाहिं न पूरो दाँव अक्रूर दियो॥ कछु न सुहाइ गई सुधि तबते भवन काज को नेम लियो। निशि दिन रटत सूरके प्रभु बिनु मरिवो तऊ न जात जियो॥४४॥ अडानो ॥ सुदर वदनरी मुखसदन श्याम को निरखि नैन मन थाक्यो। वारक इन वीथिनह्वै निकसे मैं दूरि झरोखनि झांक्यो॥ उन कछु नैक चतुरई कीनी गेंद उछारि गगन मिस ताक्यो। वारों लाज भई मोको वैरनि मैं गँवारि मुख ढाक्यो॥ कछु करिगए तनक चितवनिमें याते रहत प्रेम मद छाक्यो। सूरदास प्रभु सर्वसुलै गए हँसत हँसत रथ हाँक्यो॥४५॥
सारंग ॥ अरी मोहिं भवन भयानक लागे माई श्याम विना। देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरके अँगना॥ लैजुगए अक्रूर ताहिको ब्रजके प्राणधना। कौन सहाय करै घर अपने मेटै विधिन घना॥ काहि उठाइ गोद करि लीजै करि करि मनमगना। सूरदास मोहन दरशन बिनु सुख सपति सपना॥४६॥ मलार ॥ सब कोउ कहत गोपाल दोहाई। गोरस बेचन गई बबाकी सो हों मथुराते आई॥ जबते कह्यो कंस सों मनमोहन जीवत मृतक करि लेखो। जागत सोवत आश देवनकी कृष्ण कला सब देखो॥ करत ओघ प्रजा लोग सब नृपति के संक न मानी।
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सूरसागर।