कलहंसा। मदन गोपाल देखियत हैं सब अब दुख सोक विसारी। पैठे हैं सुफलकसुत गोकुल लेन जो इहाँ सिधारी॥ आनंदित चित जननि तात हित कृष्ण मिलन जिय भाए। सूरदास यदुकुल हित कारण अब माधो मधुपुरी आए ॥६६॥ मलार ॥ वेदेखो आवतहैं ब्रजते वने वनमाली। धन तन श्याम सुदेश पीतपट सुंदर नैन विशाली॥ जिनि पहिले पलना पौढे पय पीवत पूतना दाली। अघ बक वच्छ अरिष्ट केशी मथि जलते काढयो काली॥ जिन हति शकट प्रलंब तृणा वृत इंद्र प्रतिज्ञा टाली। एते पर नहिं तजत अघोडी कपटी कंस कुचाली॥ अब विधु वदन विलोकि सुलोचन श्रवण सुनतही आली। धन्य सुगोकुल नारि सूर प्रभु प्रगट प्रीति प्रतिपाली॥६६॥ भैरव ॥ एई माधो जिन मधु मारेरी। जन्मतही गोकुल सुखदीन्हो नंददुलार बहुत सारेरी॥ केशी तृणावर्त वृषभासुर हती पूतना जब वारेरी। इंद्रकोप बर्षत गिरि धारयो महाप्रबल बजके टारेरी॥ बल समेत नृपकंस बोलाए रचे रंग अति भारेरी। सूर अशीश देति सब सुंदरि जीवहिं अपनीमाँ प्यारेरी॥६७॥ विहागरो ॥ भए सखि नैन सनाथ हमारे। मदनगोपाल देखतही सजनी सब दुखसोक विसारे॥ पठएहैं सुफलकसुत गोकुल लेन जो इहां सिधारे। मल्लयुद्ध प्रति कंस कुटिल मति छलकरि इहां हँकारे॥ मुष्टिक अरु चाणूर शैलसम सुनियतहैं अतिभारे। कोमल कमल समान देखियत ये यशुमतिके वारे। ह्वै यह जीति विधाता इनकी करहु सहाय सवारे। सूरदास चिरजीवहु
युग युग दुष्टदलै दोउ नंददुलारे॥६८॥ अथ दूसरी लीला अक्रूरकी ।रागमारू ॥ यमुनातट आइ अक्रूर अन्हाए। श्याम बलरामको रूप जलमें निरखि बहुरि रथ देखि आचरज पाए॥ किधौं यह प्रति बिंब जलमें
देखत किधौं निजरूप दोउहैं सुहाए। चकृत होइ नीर में बहुरि बुडकी दई सहित सुता सिंधु तहां दरशपाए। दोउ करजोरि करि विनय बहुविधि करी लियो जब रूप तब प्रभु दुराई। निकसि कै नीरते तीर आयो बहुरि ताहि ढिगवोलि बोले कन्हाई॥ कहा तुम और देखत हुते तात तुम कह्यो सर जगत तुमही भुलायो। गति तुम्हारी नजानै कोऊ तुम बिना राख प्रभु राख मैं शरण आयो॥ हरि कह्यो चलौ मथुरापुरी देखिए सहित अक्रुर पुनि तहां आए। सूर प्रभु कियो विश्राम
सब निशि तहां बोधि अक्रूर निजघर पठाए॥६९॥ अध्याय ॥ ४१ ॥ श्रीकृष्ण मथुरपुर आगमन हेतु ॥ राग भैरव ॥ भोरभयो जागे नँदनंदन। नंदराइ निरखत मुख हरषे पुनि आए सब ग्वाल॥ देखि पुरी अति
परम मनोहर कंचनकोट विशाल। कहन लगे सब सूर प्रभू सों होहु इहां भूपाल॥ ७०॥ राग पराज ॥ हरि बल सोभितयो अनुहार। शशि अरु सूर उदैभए मानो दोऊ एकहि बार॥ ग्वाल बाल सँग करत कौतूहल गवनपुरी मंझार। नगर नारि सुनि देखन धांई रतिपति गेहविसार॥ उलटि अंग
आभूषण साजत रही नदेह सँभार। सूरदास प्रभु दरश देखिकै भई चकृत विचार ॥७१॥ राग धनाश्री ॥ वै देखो आवत दोऊ जन। गौर श्याम नट नील पीत पट जनु दामिनी मिलीघन॥ लोचन बंक विशाल चितै हरत हो सबके मन। कुंडल श्रवण कनक मणि भूपित जडितलाल अतिलोल मीन
तन॥ वंदन चित्रविचित्र अंग शिर कुसुम सुवास धरे नँदनंदन। बलि बलि नाउँ चलहि जेहि मारग संग लगाइ लेत मधुकर गन॥ धन्य सुभूमि जहां पगधारे जीतहि गे रिषु आजु रंगरन। सूरदास वै नगर नारि सब लेते बलाइ वारि अंचल सन॥७२॥ अथ रजकवध हेतु ॥ रामकली ॥ नृपति रजक अंवर नृप धोवत। देखे श्याम राम दोउ आवत गर्व सहित तिन जोवत॥आपुसहीमें कहत हँसत हैं प्रभु हृदय यह शालत। तनक तनकसे ग्वाल छोहरन कंस अबहिं वधि घालत॥ तृणावर्त प्रभु आहि हमारो इनहीं मारयो ताहि। बहुत अचगरी यहि करि राखी प्रथम मारिनहै याहि॥ जाको नाम श्याम सोइ खोटो तैसेइ
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दशमस्कन्ध-१०
