पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५६६

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दशमस्कन्ध-१० (१७३) | यशोमति त्रिभुवनपति धैया ॥ धन्य अकूर मधुपुरी लाए । सुर अमर जे जे ध्वनि गाए ।। दनुज वंश निरवंश कराए । धरनी शिरते भार गवाए । मात पिता पंदिते छोराए । यह वाणी सुरलो कनि गाए ॥जो जसे तसे तेहि भाए । सूरज प्रभु सबको सुसदाएराधनाश्री ॥ मथुरा दिन दिन अधिक विराजे । तेज प्रताप राइ केशोको तीनिलोक पर गाजै ॥ कोटिक तीरथ पग पग जाके मधु विश्रात विराज । कार स्नान प्रात यमुनाको जियत मरत भ भाज|श्रीविठ्ठल विपुल विनोद विहारन व्रजको वसिवो छांजे । सूरदास सेवक उनहीको कहत सुनत गिरिराज॥२८॥कस मारि सुरकारज किए । माता पिता वंदिते छोराए दुख विसरयो भानंद दिए । उग्रसेनको धाइ मिले हरि अभय अचल कार राज्य दियो । असुर वंश निरवंश छिनकमें ऐसो नहिं कोउ और वियो । मिली कृवरी चंदन लेके ऐसेहि हरिको नाम लियो । सुनहु सूर नृप पास जाति हे वीच सुकृति अति दरश दियो।।२९॥ रामफळीं।। कूवरी पूरव तपकरि राख्यो। आए श्याम भवन ताहीक नृपति महल सब नाख्यो ॥ प्रथमहि धनुप तोरि आवतह बीच मिली यह धाइ। तेहि अनुराग वश्य भए ताके सोहित को नजाइ ॥ देवकाज करि आवन कहिगए दीन्हों रूप अपार । कृपादृष्टि चित वतही श्रीभई निगम न पावत पार ॥ हमते द्वरि दीनके पाछे ऐसे दीनदयाल । सूर सुरन कार काज तुरतही आवत तहां गोपाल||३०॥ कियो सुरकाज गृह चले ताके । पुरुप अरु नारिको भेद भेदा नहीं कृलिन अकुलीन आवत हो काके ॥ दास दासी श्याम भजनते हूजिए रमा सम भई सो कृष्ण दासी । मिली वह सूर प्रभु प्रेमचंदन चरचिकै मनो कियो तप कोटि कासी ॥३१॥ ॥ गमगली ॥ भक्त बछल श्रीयादव राई। गेह कूवरीके पगधारे जाति पाति विसराई॥ पूरव भाग मानि तिन अपने चरण गही उठि धाइ । सुरति रही नहिं गेह देहकी आनंद उर नसमाइ । प्रभु गहि बांह पास बैठारी सो सुख कझो नजाइ । सूरदास प्रभु सदा भक्तवश रंक न गनहि न राइ ॥३२॥ रागनर ॥ कुविना सदन आए श्याम । कृपा करि हार गए प्रथमाह भई अनुपम वाम ।। प्रीतिके वश दीनबंधु सुभक्तवत्सल नाम । मिली मारग मलय लेकरि भए पूरण । काम ॥ उर्वसी पटतरहि नाही रमाके मनताम । मुर प्रभु महिमा अगोचर बसे दासी धाम ॥३३॥ धनाश्रीकुविजा हरिकी दासी आदिजिसे आप भाजि गोकुलर तसे राखी ताहि।।रूप रतन दुराइहो राख्यो जसे नली कपूरजिसे छाप अमोल रतन भरि कह जान जोकरविसेहि रही कूवरीदासी अविना शी की आहिामूरदास प्रभु कंस मारिके लई आनि तिहि चाहि॥३४॥ मथुराके नर नारि कह।कहा मिली कुविना चंदनले कहा श्याम तेहि कृपा चहे। कहा तपस्या करि यह राख्यो जहां तहां पुर। इह चहें । कछु नहिं कहि आवत हरि देखी इहे करो प्रभु हेत वहे । तबहिं कृपाकरि सुंदरि कीन्ही यह महिमा मोहिं कहत न आवे । मुरदास भाग कुवरीको कौन ताहि को पटतर पावे ॥ ३५॥ कुविजासी भागिनिको नारी । कसहि चंदन लिए जातही वीच मिले ताको दैतारी ॥ हरि करि कृपा करी पटरानी कुविज मिटायो डारि । इहई बात मधुपुरी जहँ तहँ दासी कहत डरत जिय भारि ।। कुविना कहत न भूल्यो कोऊ ताहि उठत देदे सब गारि । सुनहु सुर रानी मुनि पावै त्रास । होत जिन मार डारि॥३६॥धनाश्री कुविना तो बडभागी होकरुणाकरि हरि जाहि निवाजीआपु रहे तह राजी ह्र । पूरव तप फल विलसन लागी मनके भाव पुरापति ह ज जे मथुरा नर नारिन मुस बानि रह्यो जहुँ तहँ जहादित्य पिनाशि तुम तहां आप यह लीला जाने पै वासूरदास प्रभु भावहिक वा मिलत कृपा अति सुख देव॥३७॥ श्रीरसुदन वनन रामा माति ॥ रामकलीहरिकी कृपा