पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५७०

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दशमस्कन्ध-१० (१७७) प्रीति नकरी राम दशरथकी प्राण तजे विन हेरे।सूरनंदसों कहति यशोदा प्रवल पाप सब मेरे॥६० ॥ विहागरो। यह गति करत नंद नहिं छाजी। हरि विन विकल भयो नगयो मरि कुल कुठार जननी कतलाजी॥राम कृष्ण ताज गोकुल आए छतियां क्षोभरही क्यों साजी । कहा अकाज भयो दशर थको लइ जुगयो अपनी जगवानी।पातपै रहि रहति कहनको सब जग जात कालकी खानी । सूर यशोदा कहति सुधृग मति जो गिरिधरन विमुखदै भाजी॥६॥सोरठायशोदा कान्ह कान्हकै बूझे। फूटि नगई तिहारी चारो कैसे मारग सूझै|इक तनु जरोजात विन देखे अब तुम दीने फूका यह छ तियाँ मेरे कुँवर कान्ह विनु फटि नगए बैटूकाधृग तुम धृग वै चरण अहोपति अधवोलत उठिधाए। सूरश्याम विछुरनकी हम देन वधाई आए ॥ १२॥ नंदहरि तुमसों कहा कह्यो । सुनि सुनि निठुर वचन मोहनके क्यों करि हृदय रह्यो । छडि सनेह चले मंदिर कत दौरि नचरन गयो। फाटि नगई वज्रकी छाती कत यहि शूल सह्यो। सुरति करत मोहनकी वात नैनन नीर वह्यो। सुधि नरही अति गलित गात भयो जनु डसिगयो अझो । कृष्ण छांडि गोकुल कत आए चाखन दूध दह्यो । तजे न प्राण सूर दशरथलौं हुतौ जन्म निवौ ।। ६३ । मेरो अति प्यारो नँदनंद । आए कहां छांडि तुम उनको पोचकरी मतिमंद ॥ बल मोहन दोउ पीड नयनकी निरखतही आनंद । सरवर घोप कुमोदिनि ब्रजजन श्याम वदन विनचंद । काहे नपाँइ परे वसुदेवके पालि पाग गरे फंदासूरदास प्रभु अबके पठवहु सकल लोक मुनिवंद६४॥ अथनंदवचन यशोदामति॥ रामकली ॥ तब तू मारिखोई करति । रिसनि आगे कहि जो आवति अवले भांडे भरति ॥ रोसकै कर दॉवरी लै फिरति घर घर धरति । कठिन हिय करि तब जो वांध्यो अब वृथा करि मराति ॥ नृपति कंस वुलाइ पठयो बहुतके जिय डरतिइह कछू विपरीत मोमन मांझ देखी परति॥होनहारी होइहै सोइ अब यहां कत अरति।सूर तब किन फेरि राखे पाइ अब केहि परति ॥ ६६॥ यशोदा वचन नंदमति ॥ अडानो ॥ कहा ल्यायो तजि प्राणजीवनधन । रामकृष्ण कहि मुरछि परी धर यशोदा देखत लो गन ॥ विद्यमान हरि वचन श्रवणसुनि कैसे गए न प्राणछूटि तन । सुनि यह कथा दशरथकी तक नहिं लाज भई तेरे मनमिंद हीन आति भयो नंदअति होत कहा पिछताने छिन छिन । सूर नंद फिरि जाहु मधुपुरी ल्यावहु सुत करि कोटि जतन ॥६६॥ समूहबजलोग वचन ॥ केदारो॥कहो नंद कहां छाँडे कुमार । कैसे प्राण रहे सुत विछुरत पूछ गोपी ग्वार ॥ करुणा करै यशोदा माता नैन न नीरवहे असरार । चितवत नंद ठगेसे ठाढे मानो हारयो हेम जुआरामुरली नाहिं सुनिअत ब्रजमें सुर नर मुनि नहिं करतद्वै वारासूरदास प्रभुके विछुरेते कोऊनहीं झांकते द्वार॥६॥ अथ ग्वालवचन रागनट | ग्वालन कही ऐसी जाइ । भए हरि मधुपुरी राजा बड़े वंश कहाइ ॥ सूत मागध वदत विरदहि वराण वसुद्यो सात । राजभूपण अंग भ्राजत अहीर कहत लजात ॥ मात पितु वंसुदेव देवै नंद यशुमति नाहिं । यह सुनत जल नैन ढारत मीजि कर पछिताहि ॥ मिली कुविजा मलै लैकै सो भई अरबंग । सूर प्रभु वशभए ताके करत नानारंग ॥६८॥ अथ गोपीवचन कुविनामति परस्पर तरक वदत॥ गौरी ॥ कुविजा मिली कहौ यह वात । मात पिता वसुदेव देवकी मन दुख मुख हरपात ॥ सुंदरि भई अंगपरसतहीं करी सुहागिनि भारी । नृपति कान्ह कुविजा पटरानी हँसति कहति व्रजनारी ।। सौतिशाल उरमें अतिशाल्यो नखशिख लौं भहरानी। सूरदास प्रभु ऐसेई माई कहति परस्पर वानी ॥६९॥ कल्याण ॥ कुविनाको नाम सुनत विरह अनल जूडी। रिसन नारि झहार उठी क्रोध मध्य चूडी ॥ आवनकी आश मिटी ऊरध सब श्वासा।